फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में...फ़िरदौस ख़ान
अर्चना चावजी की मधुर आवाज़ में सुनिए...
ग़ज़ल
चांदनी रात में कुछ भीगे ख़्यालों की तरह
मैंने चाहा है तुम्हें दिन के उजालों की तरह
साथ तेरे जो गुज़ारे थे कभी कुछ लम्हें
मेरी यादों में चमकते हैं मशालों की तरह
इक तेरा साथ क्या छूटा हयातभर के लिए
मैं भटकती रही बेचैन ग़ज़ालों की तरह
फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह
तेरे आने की ख़बर लाई हवा जब भी कभी
धूप छाई मेरे आंगन में दुशालों की तरह
कोई सहरा भी नहीं, कोई समंदर भी नहीं
अश्क आंखों में हैं वीरान शिवालों की तरह
पलटे औराक़ कभी हमने गुज़श्ता पल के
दूर होते गए ख़्वाबों से मिसालों की तरह
-फ़िरदौस ख़ान
17 जून 2010 को 12:09 pm बजे
वाह्……………बहुत ही सुन्दर शेर्।
17 जून 2010 को 12:48 pm बजे
बेहतरीन ग़ज़ल!
17 जून 2010 को 1:02 pm बजे
फ़ूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे खत मे,
वो किताबों में सुलगते है सवालों की तरह ।
वाह क्या खुब!!
17 जून 2010 को 1:15 pm बजे
बहुत खूबसूरत ! शिल्प भी और सलीका भी !
17 जून 2010 को 1:38 pm बजे
रात सुलझाई थी अपनी परेशानी जो
सुबह उलझी मिली तेरे बालों की तरह।।
.... अपकी बेहतरीन ग़ज़ल में एक ग़ुस्ताख शेर मेरा भी...।
17 जून 2010 को 1:56 pm बजे
बहुत ही सुन्दर. हमें आपकी ग़ज़ल को पढ़ एक पुरानी ग़ज़ल याद हो आई. "ये जो ख़त तूने मोहोब्बत में लिखे थे मुझको, बन गए आज वो साथी मेरी तन्हाई के"
17 जून 2010 को 2:12 pm बजे
bahn firdozz aapkaa ghzl kaa prstutikrn laajvaab he alfaazon ko jzbaat me pirokr aapne jo smaa baandha he voh qaabile taarif he . akhtar khan akela kota rajstan
17 जून 2010 को 2:26 pm बजे
अनुराग साहब...
मन को छू गया आपका दिलकश 'गुस्ताख़' शेअर...
रात सुलझाई थी अपनी परेशानी जो
सुबह उलझी मिली तेरे बालों की तरह।।
इस ख़ूबसूरत शेअर के लिए हम आपके तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हैं...
17 जून 2010 को 2:33 pm बजे
हर एक शेर बहुत बढ़िया, शब्द एवं भाव, दोनों अच्छे लगे, बधाई हो.
17 जून 2010 को 2:43 pm बजे
लाजवाब
17 जून 2010 को 2:48 pm बजे
फिरदोश जी अच्छी ग़ज़ल लिखी है आप ने !
17 जून 2010 को 2:54 pm बजे
बहुत खुबसूरत ग़ज़ल...! अंतिम शेर "पलटे औराक़ कभी हमने..."
दाद कबूल करें... !!
17 जून 2010 को 3:02 pm बजे
क्या ग़ज़ल लिखी है, तारीफ के शब्दों की मुहताज नहीं है. अपने आप में अपनी तारीफ खुद ही कर रही है.
बहुत सुन्दर !
17 जून 2010 को 3:05 pm बजे
वाह बहुत सुन्दर.
17 जून 2010 को 3:07 pm बजे
सादर!
बहुत सुन्दर बयान किया है आपने प्यार के जजबात को,
शुभकामनाओं के साथ ........
प्यार सबसे नहीं निभाया जाता
दोस्त सबको नहीं बनाया जाता
यूँ तो बहुत मिलते हैं राहों में मगर
जो दिल में होता है उसे भुलाया नहीं जाता
रत्नेश त्रिपाठी
17 जून 2010 को 5:15 pm बजे
हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह.
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह.
और क्या इस से ज़्यादा कोई नरमी बरतूँ,
दिल के ज़ख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह.
मोहतरमा फिरदौस साहिबा आपकी ग़ज़ल ने हमें वर्षों पहले सुनी किसी उर्दू शायर की उपरोक्त ग़ज़ल की याद दिला दी.
आपकी ग़ज़ल के मतले-
का जबाब नहीं-
चाँदनी रात में कुछ भीगे ख़यालों की तरह.
मैनें चाहा है तुम्हें दिन के उजालों की तरह.
और ये शेर भी जान लेवा है-
फूल तुमने जो कभी मुझको दिये थे ख़त में,
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह.
अब थोड़ी सी ग़ज़ल के शिल्प की बात आपने काफिया रदीफ के साथ बहरे रमल मुसम्मन मखबून महज़ूफ का कुशलता से निर्वाह किया है
आपकी ग़ज़ल की अगर तक्तीय की जाये तो
अरकान इस प्रकार होंगे-
फाइलातुन- फइलातुन-फइलातुन -फेलुन-(प्रत्येक मिसरे में.
2122- -1122- 1122- - 22
ग़ालिब साहब की मश्हूर ग़ज़ल-
इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वु आतिश ग़ालिब,
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने.
ब्लाग पर कहने को ग़ज़ल के नाम पर बहुत कुछ अल्लम सल्लम है पर मेरा ध्यान उस तरफ जाता नहीं छंद मुक्त कवितायें भी मेरी फितरत के अनकूल नहीं पर अगर कहीं भाव बहुत गहरे हैं तो वे छंद पर भी भारी पड़ते हैं.
कविता कान की कला ऐसा मुझे लगता है और ग़ज़ल तो बहुत ही नाज़ुक और मौसिकी से जुड़ी एक अक्षर का इधर से उधर हो जाना पूरी रंगत को उड़ा देता है.
पिछले बार अहमदाबाद क्या गया कि ग़ज़ल ही हाथ से चली गयी आपकी पोस्ट पर आया तो शायद फिर से उस तरफ को जाना हो.
इस समय महरबानों की बदौलत एक ऐसी जगह हूँ जहाँ उर्दू हिन्दी की तो बात जाने दें साफ गुजराती भी नहीं बोली जाती गोधरा रहना शुरू किया है शाइद कोई हम ज़बान मिले.
आप उर्दू के साथ हिन्दी गुजराती अन्य भाषाओं पर पकड़ रखती हैं
बराये करम हम से अगर लफ़्फाजी़ हो गयी हो तो ज़रूर बतायें.
हम आपको पढ़ते हैं आपका अदबी रुतबा काफी ऊँचा है हम आपकी अंजुमन में बहुत सँभल कर आते हैं कहीं डांट न पड़ जाये.
आज बहुत दिनों के बाद आपके ब्लाग पर आकर सुकून मिला.अल्लाह करे ज़ोरे कलम और ज़्यादा.
17 जून 2010 को 5:23 pm बजे
जजबातों का क्या है ये बहते पानी की तरह हैं न जाने किधर विखर जायें।
सुन्दर रचना
17 जून 2010 को 5:24 pm बजे
बहुत सुन्दर गजल है।बधाई।
17 जून 2010 को 5:41 pm बजे
वाह...वाह...वाह...बहुत ही सुन्दर...
हर शेर मन को बाँध लेने वाला...
आनंद आ गया पढ़कर...
17 जून 2010 को 5:52 pm बजे
परमात्मा ने आपको बहुमुखी प्रतिभा दी है फिरदौस, आप जैसे लोग कम हैं यहाँ , मेरी हार्दिक शुभकामनायें !!
17 जून 2010 को 6:41 pm बजे
kya baat hai.
kahi na kahi gahre dard hai jo lafzon se padhne wale ke dil me utar jata hai.
aur phir rah jaata hai bas ek intizaar........
17 जून 2010 को 7:29 pm बजे
dushmni kuchh is trh us ne nikali hai
phool meri kbr pr la kr bichha diye
aur main krta bhi kya tb tk jla main khoob
jb tk hva ne kbr se n vo hta diye
phool apne apne
badhai
ved vyathit
17 जून 2010 को 7:42 pm बजे
आप की इस रचना को शुक्रवार के चर्चा मंच पर सजाया गया है.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
17 जून 2010 को 7:53 pm बजे
Kamal Hai, Comment to main bhi dioya tha.
Is khubsurat gazal ke liye.
17 जून 2010 को 8:57 pm बजे
aapko chaar din pahle phir kal bhi मेल की lekin koi jawaab नहीं.आपने kahin likha कि शहरोज़ साहब hamse संपर्क karen.आप बताएं aakhir आप से kaise संपर्क ho.मेरा फोन नंबर है ९७१६०१९०४१, ९८९९७६८३०१
gazal khoob है!
18 जून 2010 को 12:14 am बजे
बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत .............. सुंदर रचना..... दिल को छू गई.....
18 जून 2010 को 2:27 am बजे
बहुत अच्छी गज़ल लगी। अगर कठिन उर्दू शब्दों का अनुवाद भी नीचे लिख दें तो हम जैसे, जो उर्दू मे माहिर नहीं हैं लेकिन जानना चाहते हैं, लाभान्वित होंगे।
आभार।
18 जून 2010 को 4:00 am बजे
bahut badhiya ji....
shaandaar
kunwar ji,
18 जून 2010 को 9:08 am बजे
आपकी ग़ज़ल का एक एक शेर मन तक पहुंचा...बहुत खूबसूरत..
18 जून 2010 को 9:22 am बजे
बहुत सुन्दर रचना!
18 जून 2010 को 4:12 pm बजे
humse bhaga na karo door gazaalon ki tarah
humne chaha hai tumhe chaahne walon ki tarah
ye ghazal meri pasandeeda ghazlon me shumar hai... isse muttasir ho kar aapne bhi kamal ka kalam kaha hai ..daad hazir hai
20 जून 2010 को 10:58 am बजे
बेहतरीन ग़ज़ल ! हर शेर लाजवाब !!
20 जून 2010 को 11:12 am बजे
अदभुत है जी
20 जून 2010 को 11:20 am बजे
bahut sundar rachana. badhai...........
22 जून 2010 को 7:51 am बजे
सुंदर गजल. सुंदर चित्र.
22 जून 2010 को 12:06 pm बजे
फिरदौस जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मेरी दिली दाद कबूल करें...फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में....वाका शेर अपने साथ लिए जा रहा हूँ...
नीरज
22 जून 2010 को 2:46 pm बजे
bahut sundar. Behtareen prastuti.
25 जून 2010 को 4:51 pm बजे
बहुत खूबसूरत गज़लें लिखती हैं आप
25 जून 2010 को 6:35 pm बजे
{महमूद एंड कम्पनी ,मरोल पाइप लाइन ,मुंबई द्वारा हिंदी में प्रकाशित कुरान मजीद से ऊदत } इस्लाम के अनुसार इस्लाम के प्रति इमान न रखने वाले ,व बुतपरस्त( देवी -देवताओ व गुरुओ को मानने वाले काफिर है ) 1................मुसलमानों को अल्लाह का आदेश है की काफिरों के सर काट कर उड़ा दो ,और उनके पोर -पोर मारकर तोड़ दो (कुरान मजीद ,पेज २८१ ,पारा ९ ,सूरा ८ की १२ वी आयत )! 2.....................जब इज्जत यानि , युद्द विराम के महीने निकल जाये ,जो की चार होते है [जिकागा ,जिल्हिज्या ,मोहरम ,और रजक] शेष रामजान समेत आठ महीने काफिरों से लड़ने के उन्हें समाप्त करने के है !(पेज २९५ ,पारा १० ,सूरा ९ की ५ वी आयत ) 3...................जब तुम काफिरों से भिड जाओ तो उनकी गर्दन काट दो ,और जब तुम उन्हें खूब कतल कर चुको तो जो उनमे से बच जाये उन्हें मजबूती से केद कर लो (पेज ८१७ ,पारा २६ ,सूरा ४७ की चोथी आयत ) 4............निश्चित रूप से काफिर मुसलमानों के खुले दुश्मन है (इस्लाम में भाई चारा केवल इस्लाम को माननेवालों के लिए है ) (पेज १४७ पारा ५ सूरा ४ की १०१वि आयत ) .........................क्या यही है अमन का सन्देश देने वाले देने वाले इस्लाम की तस्वीर इसी से प्रेरित होकर ७१२ में मोह्हम्मद बिन कासिम ,१३९८ में तेमूर लंग ने १७३९ में नादिर शाह ने १-१ दिन मै लाखो हिन्दुओ का कत्ल किया ,महमूद गजनवी ने १०००-१०२७ में हिन्दुस्तान मै किये अपने १७ आक्रमणों मै लाखो हिन्दुओ को मोट के घाट उतारा मंदिरों को तोड़ा,व साढ़े ४ लाख सुंदर हिन्दू लड़कियों ओरतो को अफगानिस्तान में गजनी के बाजार मै बेच दिया !गोरी ,गुलाम ,खिलजी ,तुगलक ,लोधी व मुग़ल वंश इसी प्रकार हिन्दुओ को काटते रहे और हिन्दू नारियो की छीना- झपटी करते रहे {द हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया एस टोल्ड बाय इट्स ओवन हिस्तोरिअन्स,लेखक अच् ,अच् एलियार्ड ,जान डावसन }यही स्थिति वर्तमान मै भी है सोमालिया ,सूडान,सर्बिया ,कजाकिस्तान ,अफगानिस्तान ,अल्जीरिया ,सर्बिया ,चेचनिया ,फिलिपींस ,लीबिया ,व अन्य अरब देश आतंकवाद के वर्तमान अड्डे है जिनका सरदार पाकिस्तान है क्या यह विचारणीय प्रश्न नहीं की किस प्रेरणा से इतिहास से वर्तमान तक इक मजहब आतंक का पर्याय बना है ???????????????
28 जून 2010 को 3:52 pm बजे
वाह!
29 जून 2010 को 11:17 am बजे
@सच का बोलबाला
आपसे निवेदन है कि हमारे ब्लॉग पर आप सिर्फ़ पोस्ट से संबंधित कमेंट्स ही कीजिए... आपके बाक़ी कमेंट्स हम प्रकाशित नहीं कर सकते...
30 जून 2010 को 9:35 am बजे
बहुत ही दिल की गहराई से लिखा गया आदमी पढता मन से है आंसु आंखो से निकलते हैं। लगी रहो बहुत कुछ करोगे समाज के लिए- जय हिंद
13 जुलाई 2010 को 6:55 pm बजे
bahut hee achchha laga, aap ka likha padhana sukhad anubhav hai
badhai
13 जुलाई 2010 को 10:57 pm बजे
फ़िरदौस ख़ान जी
नमस्कार !
बहुत दिन बाद आपके यहां आना हुआ , … और आ'कर एहसास हो भी गया कि न आने पर कितना खोया है मैंने !
ख़ैर … पिछली पोस्ट्स की अनेक ग़ज़लें पढ़ ली हैं ।
आपकी एक एक ग़ज़ल , एक एक शे'र कोट करने लायक है
इन अश्आर ने तो कलेजा निकाल दिया जैसे …
साथ तेरे जो गुज़ारे थे कभी कुछ लम्हें
मेरी यादों में चमकते हैं मशालों की तरह
क्या कहने …
फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह
वाह ! वाह !
तेरे आने की ख़बर लाई हवा जब भी कभी
धूप छाई मेरे आंगन में दुशालों की तरह
जवाब नहीं फ़िरदौसजी !
पलटे औराक़ कभी हमने गुज़श्ता पल के
दूर होते गए ख़्वाबों से मिसालों की तरह
अब बराबर आते रहने का प्रयास रहेगा
शस्वरं पर आपका भी हार्दिक स्वागत है , आइएगा …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
13 जुलाई 2010 को 10:57 pm बजे
फ़िरदौस ख़ान जी
नमस्कार !
बहुत दिन बाद आपके यहां आना हुआ , … और आ'कर एहसास हो भी गया कि न आने पर कितना खोया है मैंने !
ख़ैर … पिछली पोस्ट्स की अनेक ग़ज़लें पढ़ ली हैं ।
आपकी एक एक ग़ज़ल , एक एक शे'र कोट करने लायक है
इन अश्आर ने तो कलेजा निकाल दिया जैसे …
साथ तेरे जो गुज़ारे थे कभी कुछ लम्हें
मेरी यादों में चमकते हैं मशालों की तरह
क्या कहने …
फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह
वाह ! वाह !
तेरे आने की ख़बर लाई हवा जब भी कभी
धूप छाई मेरे आंगन में दुशालों की तरह
जवाब नहीं फ़िरदौसजी !
पलटे औराक़ कभी हमने गुज़श्ता पल के
दूर होते गए ख़्वाबों से मिसालों की तरह
अब बराबर आते रहने का प्रयास रहेगा
शस्वरं पर आपका भी हार्दिक स्वागत है , आइएगा …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
16 जुलाई 2010 को 9:50 pm बजे
खूबसूरत ग़ज़ल...बधाई
- अखिलेश सोनी
www.jazbaat-dilse.blogspot.com
7 अगस्त 2010 को 1:57 pm बजे
चांदनी रात में कुछ भीगे ख़्यालों की तरह
मैंने चाहा है तुम्हें दिन के उजालों की तरह...
हर शेर लाजवाब....
आपकी शायरी पर कुछ कह पाना हमारे लिए आसान नहीं...
ये ग़ज़ल पहले भी पढ़ी है...
हैरत ये है कि इस पर कमेंट क्यों नहीं दिया जा सका?
इसके लिए मुआफ़ी...
11 अगस्त 2010 को 2:51 pm बजे
कमाल के लफ्ज इस्तेमाल किये हैं आपने. बहुत प्रभावशाली बयान. बधाई
16 अगस्त 2010 को 12:56 pm बजे
Great GAZAL
27 अगस्त 2010 को 9:11 pm बजे
फिरदौस जी की गजल आपके आवाज मे सुनना बढ़िया लगा ।
24 मार्च 2012 को 8:38 am बजे
I read your poems for the first time today. It is very nice. I liked it very much.