तू मेरे गोकुल का कान्हा, मैं हूं तेरी राधा रानी...
जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...
अगर इंसान अल्लाह या ईश्वर से इश्क़ करे तो... फिर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी मस्जिद में नमाज़ पढ़कर उसकी इबादत की है... या फिर किसी मन्दिर में पूजा करके उसे याद किया है...
एक गीत
तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
6 अप्रैल 2010 को 2:21 pm बजे
jitnee bhee tareef kee jae kum hee hogee............
6 अप्रैल 2010 को 3:00 pm बजे
"केवल विचार ही महत्वपूर्ण होते हैं..बाकि कुछ नहीं....."
6 अप्रैल 2010 को 3:20 pm बजे
मरना अब आसान जिंदगी प्यार की सौगात हो गयी ...
होंठ हिले नहीं लगा जन्मों की बात हो गयी ...
बहुत सुन्दर ...सूफियाना कलाम बन गया यह गीत ...
6 अप्रैल 2010 को 3:21 pm बजे
khubsurat andaaj
6 अप्रैल 2010 को 4:33 pm बजे
फ़िरदौस साहिबा, आपको 'लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी नहीं'....बल्कि हुस्न व कलाम की मलिका कहना ज़्यादा मुनासिब होगा. (हम गुस्ताखी के लिए मुआफ़ी चाहते हैं)
आपकी शायरी किसी को भी दीवाना बना लेने की तासीर रखती है..... मगर जब आप हालात पर तब्सिरा करती हैं तो आपकी क़लम तलवार से भी ज़्यादा तेज़ हो जाती है....
आपकी शायरी में इश्क़, समर्पण, रूहानियत और पाकीज़गी है, वहीं लेखों में एक आग समाई है.....
आपकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है.....
आज फिर हम अल्फ़ाज़ की कमी महसूस कर रहे हैं.....
6 अप्रैल 2010 को 5:14 pm बजे
आप जितनी तंज रखती है उतनी ही रूमानियत भी
सुन्दर बहुत सुन्दर
6 अप्रैल 2010 को 5:48 pm बजे
waqay me behadd sundar aap ka ye rup bhi ho sakta he bahut khusi hui pad kar ke
waqay me bahut
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
6 अप्रैल 2010 को 6:00 pm बजे
*परोसा पढ़े.
6 अप्रैल 2010 को 6:00 pm बजे
सही कहा आप ने। पर अल्लाह से इश्क की पैरवी और प्रचार करने वाले सूफी आंदोलन को कुछ दिनों पहले ही कोई गैर इस्लामिक बता रहा था।
यूँ तो तुलसीदास जी ने लिखा है...
तुलसी प्रतिमा पूजिबो जिमि गुड़ियन कर खेल।।
भेंट भई जब पीव से धरी पिटारी मेल।।
6 अप्रैल 2010 को 6:00 pm बजे
एक सुन्दर गीत पड़ोस आपने...!!
6 अप्रैल 2010 को 6:37 pm बजे
बधाई फिरदौस जी...आपकी कविता ने जैसे रूहानी आनंद से सराबोर कर दिया. वास्तव में उस व्यक्ति के नसीब के क्या कहने जो कभी ऐसे अलफ़ाज़ का हकदार कभी हो पाया हो. तुलसी, कबीर, मीरा ने शायद ऐसा ही प्यार किया होगा चाहे अपने खुदा से या प्रेमी से. वैसे चाहने वाले तो प्रेमी को खुदा या अपने खुदा को ही प्रेमी का दर्ज़ा बख्श देते हैं...आपने तुलसी के विचार को एक बार नए अलफ़ाज़ दिए हैं...उन्होंने कहा था मानस में...गिरा अनयन, नयन बीनु वाणी....जिसे कभी गीतकार ने कहा...नाजुबान को दिखाई देती है न नज़रों से बात होती है....! एक चिर विद्रोहिणी फिरदौस के अंदर एक ऐसा रूमानी दिल भी धड़कता है यह प्रेरणास्पद है...बधाई.
6 अप्रैल 2010 को 7:11 pm बजे
बहुत सुन्दर रचना सदा की तरह......!
सच में खो गया पढ़ते-पढ़ते...
शुभकामनाये स्वीकार करें....
कुंवर जी,
6 अप्रैल 2010 को 7:31 pm बजे
बहुत सुंदर गीत। प्रेम की दिव्यता एहसास कराता हुआ। जीवन के परम सत्य की ओर इंगित करता हुआ। इसे हम तक पहुंचाने के लिये तहे दिल से शुक्रिया।
6 अप्रैल 2010 को 10:14 pm बजे
फ़िरदौस खान जी !
शायद पहली बार मैंने आपकी किसी रचना को पढ़ा है..........पढ़ कर बड़ा सुकून मिला , क्योंकि आज जब इश्क़ का मतलब जिस्मानी हवस के आसपास सिमट कर रह गया है तो इश्क़े-हक़ीकी को कायम करने वाला यह जानदार गीत बेशक एक ऐसे जुगनू की तरह चमचमाता हुआ नज़र आता है जिसके चारों ओर भले ही कितना घना अन्धकार हो, पर वह अपनी चमक से वाकिफ़ ज़रूर करा देता है .
इश्क़ बहुत ऊँची सर्कस है, हर किसी के बस में नहीं इश्क़ करना ...........इश्क़ में ख़ुद इश्क़ होना पड़ता है , घुलना पड़ता है नमक की तरह समन्दर में...........तब कहीं जा कर यार से विसाल होता है
बहुत बहुत मुबारक
बेहतरीन पोस्ट !
7 अप्रैल 2010 को 12:08 am बजे
गीत अच्छी लगी..सुंदर प्रस्तुति..धन्यवाद
7 अप्रैल 2010 को 10:02 am बजे
बेहतरीन।
7 अप्रैल 2010 को 12:37 pm बजे
bahut khub kaha behtreen
7 अप्रैल 2010 को 1:58 pm बजे
soofi sant ki baaton sa laga sab yahaan .....
7 अप्रैल 2010 को 6:22 pm बजे
ek bahut hi divya anubhuti bhari rachna...........gazab ki prastuti.
8 अप्रैल 2010 को 9:44 pm बजे
फिरदौस,
यह मेरी सबसे पसंदीदा रचना है ...मज़ा आ जाता है इस प्यार में डूबने का दिल करता है ! काश गुस्से में गालियाँ देते लोग, इसे ध्यान से पढ़ें और समझ पायें !
सादर
9 अप्रैल 2010 को 7:17 am बजे
आपकी प्रकाशित गंगा जमुनी ....मुझे चाहिए, कहाँ से खरीदी जा सकती है ?
12 अप्रैल 2010 को 12:16 pm बजे
रचना अच्छी है, विचार भी ! बधाई !
12 अप्रैल 2010 को 12:34 pm बजे
बहुत सुन्दर रचना है ! खूबसूरती भी है और गहराई भी ! बधाई !
1 अप्रैल 2012 को 11:42 am बजे
hridy sprshi abhivykti
bhut 2 bdhai