आहटें धूप की
ज़ुल्मतें जब भी मेरे घर से गुज़र जाएंगी
आहटें धूप की आंगन में उतर जाएंगी
रहगुज़ारों में अगर उम्र को भटकाओगे
हसरतें ख़्वाब के जंगल में बिखर जाएंगी
मौसम-ए-ख़ार में कलियां जो हुईं अफ़सुर्दा
चांदनी बनके बहारों में निखर जाएंगी
हर तरफ़ आग और सहरा का अजब मंज़र है
बदलियां बनके घटा किसके नगर जाएंगी
तोड़ न देना परिंदों के बसेरे फिर से
ख़्वाहिशें उड़ने की बेचारों की मर जाएंगी
दास्तां माज़ी की पूछो न, तो बेहतर होगा
बूंदें शबनम की लबे-गुल से बिखर जाएंगी
याद आएंगे फ़िरदौस के गुज़रे लम्हे
तितलियां वक़्त की कुछ और संवर जाएंगी
-फ़िरदौस ख़ान
शब्दार्थ
फ़िरदौस - जन्नत, स्वर्ग
अफ़सुर्दा - उदास
माज़ी - अतीत
26 अगस्त 2008 को 3:37 pm बजे
bahut khosurat khayal hai
ज़ुल्मतें जब भी मेरे घर से गुज़र जाएंगी
आहटें धूप की आंगन में उतर जाएंगी
26 अगस्त 2008 को 5:28 pm बजे
आहटें धूप की आंगन में उतर जाएंगी........
हसरतें ख़्वाब के जंगल में बिखर जाएंगी......
बेहतरीन लिखा है आपने
26 अगस्त 2008 को 5:28 pm बजे
26 अगस्त 2008 को 6:41 pm बजे
बहुत अच्छा लिखा है।
26 अगस्त 2008 को 7:46 pm बजे
aapko padhna hamesha acchha lagta hai...
26 अगस्त 2008 को 8:41 pm बजे
खूबसूरत...बहुत उम्दा...वाह!
28 अगस्त 2008 को 5:19 pm बजे
ज़ुल्मतें जब भी मेरे घर से गुज़र जाएंगी
आहटें धूप की आंगन में उतर जाएंगी
हर तरफ़ आग और सहरा का अजब मंज़र है
बदलियां बनके घटा किसके नगर जाएंगी
बेहतरीन ग़ज़ल है...