सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे
मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे
रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे
रेगज़ारों में कटती रही ज़िन्दगी
ख़ार चुभते रहे, गुनगुनाते रहे
ज़िन्दगीभर उसी अजनबी के लिए
हम भी रस्मे-दहर को निभाते रहे
-फ़िरदौस ख़ान
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे
रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे
रेगज़ारों में कटती रही ज़िन्दगी
ख़ार चुभते रहे, गुनगुनाते रहे
ज़िन्दगीभर उसी अजनबी के लिए
हम भी रस्मे-दहर को निभाते रहे
-फ़िरदौस ख़ान
25 अगस्त 2008 को 3:15 pm बजे
अबोल अहसास
इसे नज़्म की ज़ुबान ही उतार सकती है
25 अगस्त 2008 को 5:40 pm बजे
रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे
waah...bahut khoob.
26 अगस्त 2008 को 9:57 am बजे
मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे
रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे
शानदार ग़ज़ल है...
7 सितंबर 2008 को 1:37 am बजे
मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे
बहुत बेहतरीन भाव
वीनस केसरी