वो जुस्तजू, वो मोड़, वो जंगल नहीं रहा
जूड़े में फूल आंखों में काजल नहीं रहा
मुझसा कोई भी आपका पागल नहीं रहा
ताज़ा हवाओं ने मेरी ज़ुल्फ़ें तराश दीं
शानों पे झूमता था वो बादल नहीं रहा
मुट्ठी में क़ैद करने को जुगनू कहां से लाऊं
नज़दीक-ओ-दूर कोई भी जंगल नहीं रहा
दीमक ने चुपके-चुपके वो अल्बम ही चाट ली
महफूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा
मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा
'फ़िरदौस' मैं यक़ीं से सोना कहूं जिसे
ऐसा कोई भी मुझसा क़ायल नहीं रहा
-फ़िरदौस ख़ान
4 अगस्त 2008 को 2:55 pm बजे
आप की सोच में पुख्तगी साफ़ दिखाई देती है...बेहद खूबसूरत कलाम है आप का...दिली दाद कुबूल फरमाईये.
नीरज
4 अगस्त 2008 को 7:38 pm बजे
ताज़ा हवाओं ने मेरी ज़ुल्फ़ें तराश दीं
शानों पे झूमता था वो बादल नहीं रहा
दीमक ने चुपके-चुपके वो अल्बम ही चाट ली
महफूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा
आपके शब्दों में सादगी और गहराई है। आपकी और भी गज़लों की प्रतीक्षा रहेगी..
***राजीव रंजन प्रसाद
www.rajeevnhpc.blogspot.com
www.kuhukakona.blogspot.com
5 अगस्त 2008 को 6:11 am बजे
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.
23 मार्च 2010 को 10:44 am बजे
बहती हुई सी ग़ज़ल है,
शुक्रिया!
23 मार्च 2010 को 11:25 am बजे
बहुत खूब लिखा........"
amitraghat.blogspot.com
23 मार्च 2010 को 6:35 pm बजे
"दीमक ने चुपके-चुपके वो एल्बम ही चाट ली
महफूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा "
ग़ज़ल वाक़ई बहुत बहुत अच्छी है
लेकिन ...
जाने क्यूं ...
अभी इस शेर से आगे नहीं बढ़ पा रहा हूँ
अब मालूम नहीं ये दीमक ऑ एल्बम जैसी
तश्बीह-ऑ-अलक़ाब क्यूं इतना मुह्तासिर कर रहे हैं
इस एक शेर में
कितने-कितने-कितने लोगों की
दिलों की तवील दास्ताँ को क़ैद कर लिया गया है...वाह .
और.....
"मुझसा कोई भी आपका पागल नहीं रहा..."
खूब कहा है ....मुबारकबाद .
25 मार्च 2010 को 8:20 am बजे
बहती हुई सी ग़ज़ल है,