सफ़र

कभी-कभी इन क़दमों को सफ़र भी कितने रास आते हैं... ये ज़िन्दगी भी तो एक सफ़र ही है... एक ऐसा सफ़र जिसकी मंज़िल का कहीं कोई पता नहीं... बे मक़सद-सी, बे मतलब सी ज़िन्दगी... एक ऐसी ज़िन्दगी जैसे किसी को सेहरा में फेंक दिया हो, हर तरफ़ रेत ही रेत... मुसाफ़िर कहां जाए, और कहां न जाए... या फिर किसी गहरे समंदर में फेंक दिया हो... दूर तक सिर्फ़ पानी ही पानी है... कहीं कोई किनारा ही नज़र नहीं आता... लेकिन रेगिस्तान में भटकना तो है, समंदर में डूबते-डूबते तैरना है और तैरते-तैरते डूबना है... आख़िर ये सफ़र कभी न कभी, कहीं न कहीं जाकर ख़त्म तो होगा ही...

  • फिर से एक ख़ूबसूरत सफ़र का आग़ाज़ हो रहा है... उस ज़मीन पर फिर से क़दम पड़ेंगे, जिसका हर ज़र्रा हमारे लिए क़ाबिले-एहतराम हो गया है... जिसकी फ़िज़ाओं में मुहब्बत की ख़ुशबू घुल गई है...

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