लड़कियां...


लड़कियां
डरी-सहमी लड़कियां
चाहकर भी
मुहब्बत की राह पर
क़दम नहीं रख पातीं
क्यूंकि
वो डरती हैं
उन नज़रों से
जो हमेशा
उन्हें घूरा करती हैं
उनके हंसने-मुस्कराने
की वजहें पूछी जाती हैं
उनके चहकने पर
तानें कसे जाते हैं
उनके देर तक जागने पर
सवालों के तीर छोड़े जाते हैं...

लड़कियां
मजबूर और बेबस लड़कियां
चाहकर भी
अपनी मुहब्बत का
इक़रार नहीं कर पातीं
क्यूंकि
वो डरती हैं
कहीं कोई उनकी आंखों में
महकते ख़्वाब न देख ले
कहीं कोई उनकी तेज़ होती
धड़कनें न सुन ले
कहीं कोई उनके चेहरे से
महबूब का नाम न पढ़ ले

सच
कितनी बेबस होती हैं
ये लड़कियां...
-फ़िरदौस ख़ान
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