नज़्म और शदीद मुहब्बत
यूं तो हर शायरा को अपनी हर नज़्म अज़ीज़ हुआ करती है, लेकिन कुछ कलाम ऐसे होते हैं, जिनसे कुछ ज़्यादा ही उन्सियत होती है... हमें भी अपनी एक नज़्म बहुत पसंद है... इसे बार-बार पढ़ने को जी चाहता है... शायद इसलिए कि इसमें अपने महबूब के लिए शदीद मुहब्बत का इज़हार किया गया है... ये नज़्म हमने उनके लिए लिखी थी, जिनके क़दमों में हम अपनी अक़ीदत के फूल चढ़ाते हैं...
मेरे महबूब...
नज़्म
मेरे महबूब !
उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख़्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख़्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश की है...
-फ़िरदौस ख़ान
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