अच्छा इंसान




अच्छा इंसान बनना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी. एक अच्छा इंसान ही दुनिया को रहने लायक़ बनाता है. अच्छे इंसानों की वजह से ही दुनिया क़ायम है.   
डॉ. फ़िरदौस ख़ान  
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तू मेरे गोकुल का कान्हा, मैं हूं तेरी राधा रानी...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है. इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना, क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है, उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है. उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है. वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है. इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है. इश्क़ में रूहानियत होती है. इश्क़, बस इश्क़ होता है, किसी इंसान से हो या ख़ुदा से.


अगर इंसान अल्लाह या ईश्वर से इश्क़ करे, तो फिर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी मस्जिद में नमाज़ पढ़कर उसकी इबादत की है या फिर किसी मन्दिर में बैठकर कर उसे याद किया है.
 
एक गीत
तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
-फ़िरदौस ख़ान

अर्चना चावजी की आवाज़ में गीत

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यादों से वाबस्ता ख़ुशियों के ख़ज़ाने











बचपन की चीज़ें देखकर दिल को बेहद ख़ुशी हासिल होती है. ज़िन्दगी की असली ख़ुशियां तो छोटी-छोटी चीज़ों में ही हुआ करती हैं. अब इन चन्द तस्वीरों को ही लें. हमारे घर में भी ऐसी ही बहुत-सी तस्वीरें थीं. इनके अलावा बहुत सी सीनरी भी थीं. इनमें पहाड़, झरने, दरख़्त और रंग-बिरंगे फूल होते थे.      

हमारे रिश्तेदारों और मेलजोल के लोगों के घरों में भी ऐसी ही तस्वीरें हुआ करती थीं. आज भी कुछ तस्वीरें हैं, जिन्हें हमने बहुत ही संभाल कर रखा है. ऐसा लगता है कि ये हमारी यादों से वाबस्ता ख़ुशियों के ख़ज़ाने है.  
-फ़िरदौस ख़ान 

        


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अच्छे लोग



कई बरस पुरानी बात है. हमारे पास एक फ़ोन आया. फ़ोन करने वाले शख़्स ने दुआ-सलाम के बाद कहा कि उनके पास हमारी चन्द तहरीरें हैं, जिसे उन्होंने बहुत संभाल कर रखा है. उन्होंने कहा कि अगर हमारे पास उनकी कॉपी न हो, तो हम उनसे वे तहरीरें ले सकते हैं. हमने कहा कि हमारे पास उनकी कॉपी है. 

कुछ अरसे बाद फिर उनका फ़ोन आया. उन्होंने हमसे एक दीनी विषय पर बात की, ख़ासकर इस्लाम के बारे में. साल में दो-तीन बार उनसे बात होती. हमारे काम का क्षेत्र एक था, लेकिन शहर अलग-अलग थे. एक बार उन्होंने हमें अपने घर आने का निमंत्रण दिया. हमने कहा कि इंशा अल्लाह. इस बात को भी कई साल गुज़र गए. एक बार उन्होंने फिर घर आने को कहा. हमने कहा कि उनके शहर में न जाने कब आना होगा. इस पर उन्होंने कहा कि वे अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी वक़्त तक इंतज़ार करेंगे. उनके ये अल्फ़ाज़ दिल को छू गए. हमने सोचा कि जब भी उनके शहर में जाना होगा, तो उनके घर इंशा अल्लाह ज़रूर जाएंगे.

कुछ माह बाद वह वक़्त आ गया जब हम उनके शहर गए. पहली फ़ुर्सत मिलते ही हम उनके घर गए. हम उन्हें बरसों से जानते थे, लेकिन मुलाक़ात एक बार ही हो पाई है. घर पर उनकी पत्नी और बेटा था. उन्होंने बहुत ही अपनापन से हमारा स्वागत किया. हमने बहुत-सी बातें कीं. नाश्ता किया.

हमारे लिए वह एक बहुत ही ख़ूबसूरत और यादगार दिन था. गर्मियों का मौसम था. वह खिला और चमकदार सुनहरा दिन था. वाक़ई अच्छे लोगों से मिलना यादगार ही होता है. अच्छे लोग वक़्त को भी अच्छा बना देते हैं. उनकी ख़ासियत यह है कि वे एक नेक इंसान हैं. उन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं किया होगा, ये हमारा यक़ीन हैं. अच्छाई और मेहनत की कमाई ही उनका सरमाया है. 
-फ़िरदौस ख़ान
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वक़्त किसी को मोहलत नहीं देता


हमें अम्मी से बहुत सी बातें करनी थीं, लेकिन मौत ने मोहलत नहीं दी. और ये वक़्त किसी के लिए नहीं ठहरता. इसलिए हम सबसे बात करते हैं. कल किसने देखा है. जो कुछ है, बस आज ही है, इसी वक़्त है. वक़्त रेत की मानिन्द ज़र्रा-ज़र्रा मुट्ठी से फिसल रहा है.
इसलिए कल के लिए कुछ नहीं टालते.
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संग्रहणीय पुस्तक है नवगीत कोश


फ़िरदौस ख़ान
सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार डॉ. रामनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ द्वारा लिखित ‘नवगीत कोश’ पढ़ने का मौक़ा मिला। इसे पढ़कर लगा कि अगर इसे पढ़ा नहीं होता, तो कितना कुछ जानने और समझने से रह जाता। कितना कुछ ऐसा छूट जाता, जिसका मलाल रहता। किताबों की भीड़ में बहुत-सी किताबें ऐसी होती हैं, जो सबसे अलग नज़र आती हैं। ये वो किताबें होती हैं, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता है, जो किसी शिक्षक की तरह हमें किसी विषय विशेष की विस्तृत जानकारी मुहैया करवाती हैं। ऐसी किताबें संग्रहणीय होती हैं, जो वर्तमान ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ज्ञान की थाती होती हैं। यह भी एक ऐसी ही किताब है।     

इस ‘नवगीत कोश’ को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है। इसमें पाँच खंड हैं। प्रथम खंड में प्रस्तावना है, जिसमें गीत, नवगीत की प्रामाणिक भूमिका, इतिहास, संवेदना संसार और शिल्प पर प्रामाणिक चर्चा है। द्वितीय खंड में 700 एकल और 100 समवेत नवगीत संग्रहों का परिचय है। तृतीय खंड में 297 नवगीतकारों का संक्षिप्त परिचय है। इसमें पाँच प्रवासी भी हैं। चतुर्थ खंड में नवगीत के समीक्षा सम्बन्धी 103 प्रकाशित ग्रंथों, 73 अप्रकाशित शोध ग्रंथों और 58 पत्रिकाओं का परिचय है। पंचम खंड में 29 नवगीतकारों और समीक्षकों का साक्षात्कार है, जिनमें स्वयं डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ सहित अनूप अशेष, डॉ. आलमगीर अली, डॉ. इन्दीवर, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, गणेश गम्भीर, जगदीश ‘पंकज’, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, नचिकेता, पारसनाथ गोवर्धन, डॉ. पार्वती जे. गोसाईं, पूर्णिमा वर्मन, भारतेन्दु मिश्र, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, महेश उपाध्याय, डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा, रमेश गौतम, राधेश्याम बन्धु, विनोद निगम, वीरेन्द्र आस्तिक, वेद प्रकाश शर्मा ‘अमिताभ’, डॉ. वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’, डॉ. श्रीराम परिहार, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सोम ठाकुर, हरिशंकर सक्सेना, हरीश निगम और हृदयेश्वर शामिल हैं। साक्षात्कार में ऐसे सवाल पूछे गए हैं, जो साहित्य प्रेमियों की जिज्ञासा को तृप्त करते हैं। सभी नवगीतकारों ने अपने-अपने अंदाज़ में जवाब दिए हैं। इनसे बहुत कुछ जानने, समझने और सीखने को मिलता है।                             
 
इस ‘नवगीत’ को तैयार करने में डॉ. यायावर ने अपनी ज़िन्दगी के तीन अनमोल साल ख़र्च किए हैं। इसमें उनकी मेहनत, उनकी लगन और उनका समर्पण सबकुछ ही तो झलकता है। उन्होंने गीत के शब्दार्थ, मीमांसा  और परिभाषा का बहुत ही सहजता से वर्णन किया है। जो व्यक्ति साहित्य से सम्बन्ध नहीं रखता या जिसे नवगीत के विषय में बुनियादी जानकारी भी नहीं है, वह भी इसे पढ़कर नवगीत के विषय में जान जाएगा कि नवगीत क्या है। 
    
उनकी भाषा शैली और उनके शब्दों का चयन इतना सुन्दर है कि वह पाठक को ऐसे बहा ले जाता है, जैसे नदी किसी नाव को अपनी अविरल धारा के साथ बहा ले जाती है। पाठक बस उसमें बहता चला जाता है। कहीं रुकने का उसका मन ही नहीं करता। पढ़ते-पढ़ते कब किताब मुकम्मल हो गई, पता ही नहीं चलता। बानगी देखें- गीत हृदय की वर्णमयी झंकार या दूसरे शब्दों में यह हृदय-हिमालय से फूट पड़ने वाली वह अविरल स्रोतास्विनी है, जो भावाच्छ्वास के ताप से पिघलकर अनायास फूट पड़ती है। यह काव्य की आदि विधा है। सृष्टि के जन्म के साथ ही गीत जन्मा, क्योंकि सृष्टा ने प्रकृति के कण-कण में गीत की अस्मिता भर दी है। ऋतुओं का क्रमिक परिवर्तन, सूर्य का निश्चित समय पर उदयास्त, पवन का गतिमय संचालन, कल-कल बढ़ती सरिताओं का गतिमय गायन, झरनों का उद्वेगमय निपतन, दिवा रात्रि का क्रमश: आवागमन, पृथ्वी द्वारा सूर्य का और चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का लययुक्त परिभ्रमण, तरु शिखरों पर पक्षियों का संगीतमय कलरव, कोमल किसलयों की मर्मर ध्वनि, कभी क्रुद्ध प्रकृति द्वारा निर्देशित विध्वंस रचती झंझाओं का भैरव नर्तन, मधुऋतु में पुष्पों की मधुर मुस्कान, उपवन के भ्रमरों की लयबद्ध गुनगुनाहट, पावस की अँधेरी रात में झींगुरों की झंकार, मयूर की केका ध्वनि के साथ किया गया मोहक नृत्य, वर्षा के बादलों की घुमड़न और बरसी बूँदों का शीतल स्पर्श, शिशिर में ओस की बूँदों का मुक्ताभासी सौन्दर्य, पतझड़ में पियराते पत्तों का गिरना, कृषक बाला का अकृत्रिम गायन, शरद पूर्णिमा में चन्द्रमा की निष्कलुष स्वच्छ चाँदनी का अछोर विस्तार और श्रम से सँवरती-बिखरती ज़िन्दगी का स्वेद आदि सबमें एक गीत है। प्रकृति में और जीवन में जहाँ भी लय है, संगीत है गुनगुनाहट है, झंकार है, वहाँ-वहाँ गीत उपस्थित है। गीत अनुभूति और संगीत की लाड़ली सन्तान है। सत्य, शिव और सौन्दर्य का लयबद्ध संयोजन है, जीवन-राग का स्वरबद्ध गायन है। सम्भवत: एक गीत में कहा गया है-
धरती, अम्बर, फूल पाँखुरी
आँसू, पीड़ा, दर्द, बाँसुरी 
मौल, ऋतुगंधा, केसर 
सबके भीतर एक गीत है 

पीपल, बरगद, चीड़ों के वन
सूरज, चन्दा, ऋतु परिवर्तन 
फुनगी पर इतराती चिड़िया 
दूब भरे कोमल तुषार कन 
जलता जेठ भीगता सावन 
सबके भीतर एक गीत है 

रात अकेली चन्दा प्रहरी
अरुणोदय की किरण अकेली 
फैली दूर तलक हरियाली 
उमड़ी हुई घटायें गहरी 
मुखर फूल शरमाती कलियाँ 
मादक ऋतुपति, सूखा पतझर 
सबके भीतर एक गीत है     

                                 
पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रथम गीतकार माने जाते हैं। डॉ. यायावर उनकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। नवगीत लेखन के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। वे नवगीतकारों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका मानना है कि नवगीत का भविष्य उज्ज्वल है। नयी, युवा पीढ़ी अपनी ताज़गी भरी रचनाधर्मी ऊर्जा के साथ उससे जुड़ रही है। अब वह अन्तर्जाल के द्वारा भारत के बाहर भी लोकप्रिय हो रहा है। इसलिए जब तक मानव है, उसमें संवेदयें हैं, जीवन में जटिलतायें हैं और मानव में अभिव्यक्ति की ललक है, तब तक नवगीत रहेगा। सम्भव है आने वाला कल किसी और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव करे, तो वह होगा, परन्तु गीत रहेगा। वह मानव का कालजयी सहचर है।

डॉ. यायावर को काव्य की यह पुण्य विधा अपने पिता स्वर्गीय पंडित रामप्रसाद शर्मा से विरासत में मिली है। वे स्वतंत्रता सेनानी और लोकगायक थे। पहले वे भजन और फिर लोक महाकाव्य ढोला के द्वारा जन-जागरण करते रहे। इसलिइ उन्हें बचपन से ही संगीत और लोकसंस्कृति को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। उन्होंने सातवीं कक्षा में ही पहला बालगीत लिख लिया था।

बहरहाल, डॉ. यायावर की यह पुस्तक साहित्य के छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है। पुस्तक का आवरण भी आकर्षक है। किताब का मूल्य भी वाजिब है। डॉ. यायावर ने पाठकों की सुविधा के लिए इसका मूल्य कम रखवाया है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पाठक इसे ख़रीद सकें।       

पुस्तक का नाम : नवगीत कोश 
लेखक : डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा 
पृष्ठ : 640
मूल्य : 500 रुपये      
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ज़िन्दगी


हमने ज़िन्दगी में जो चाहा वह नहीं मिला, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा मिला. ज़मीन चाही, तो आसमान मिला... इतना मिला कि अब कुछ और चाहने की 'चाह' ही नहीं रही.

* ज़िन्दगी में ऐसा भी मुक़ाम आया करता है, जब इंसान जद्दो-जहद करके थक जाता है. उसकी ख़्वाहिशें दम तोड़ देती हैं. उम्मीद का दिया बुझ जाता है. फिर उसे ज़िन्दगी में कुछ भी अच्छा होने की कोई आस नहीं रहती.

* इंसान को संघर्ष अकेले करना पड़ता है. नाकामी का दर्द भी अकेले ही सहना पड़ता है. लेकिन जब कामयाबी मिल जाती है, तो उसे बांटने के लिए सब आ जाते हैं. यही दुनिया का दस्तूर है.


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ऑल इंडिया रेडियो


ऑल इंडिया रेडियो से हमारा दिल का रिश्ता है. रेडियो सुनते हुए ही बड़े हुए. बाद में रेडियो से जुड़ना हुआ. 
ऑल इंडिया रेडियो पर हमारा पहला कार्यक्रम 21 दिसम्बर 1996 को प्रसारित हुआ था. इसकी रिकॉर्डिंग 15 दिसम्बर को हुई थी. कार्यक्रम का नाम था उर्दू कविता पाठ. इसमें हमने अपनी ग़ज़लें पेश की थीं. उस दिन घर में सब कितने ख़ुश थे. पापा की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था. रेडियो से हमारी न जाने कितनी ख़ूबसूरत यादें जुड़ी हुई हैं. 
आज भी रेडियो से उतना ही लगाव है. 
रेडियो के सभी चाहने वालों को आकाशवाणी प्रसारण दिवस की मुबारकबाद 🌺
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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सालगिरह


आज हमारी ईद है, क्योंकि आज उनकी सालगिरह है. और महबूब की सालगिरह से बढ़कर कोई त्यौहार नहीं होता. 
अगर वो न होते, तो हम भी कहां होते. उनके  दम से ही हमारी ज़िन्दगी में मुहब्बत की रौशनी है. और अगर ये रौशनी न होती, तो ज़िन्दगी कितनी अधूरी होती, लाहासिल होती.
अल्लाह अपने महबूब हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सदक़े में हमारे महबूब को हमेशा सलामत रखे, आमीन 🌹
-फ़िरदौस ख़ान
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फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते


फ़िरदौस ख़ान
ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा बचपन होता है. बचपन की यादें हमारे दिलो-दिमाग़ पर नक़्श हो जाती हैं. और जब बात गर्मियों की छुट्टियों की हो, तो फिर कहना ही क्या. शायद ही कोई बच्चा हो, जिसे गर्मियों की छुट्टियों का इंतज़ार न रहता हो. 

हमें भी सालभर गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार रहता था, क्योंकि गर्मियों की छुट्टियों में हमें अपनी नानी जान के घर जाने का मौक़ा मिलता था. हमारे नाना के बाग़ थे, जिनमें आम, अमरूद, जामुन और शहतूत के अलावा और भी बहुत से फलों के दरख़्त थे. हम अपने भाइयों के साथ दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़ते और खाते थे. दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़कर खाने के लुत्फ़ को कभी भुलाया नहीं जा सकता. आज भी फलों के दरख़्तों को देखकर बचपन में उन पर चढ़ना याद आ जाता है.  

बाग़ के पास एक बड़ा तालाब भी था. एक बार वहां खेलते हुए तालाब में गिर भी गए थे. अल्लाह का शुक्र है कि हमें पानी में से निकाल लिया गया. वहां का लज़ीज़ खाना, रबड़ी, छोले-समौसे और बर्फ़ वाली नारियल के बुरादे की कुल्फ़ी बहुत याद आती है.     

अब बात करते हैं अपने घर की. हमारे घर के पास एक बड़ा मैदान था. उस मैदान में बहुत से दरख़्त थे. वहां खजूर के भी दरख़्त थे. घर बहुत बड़ा था और उसका आंगन भी बहुत ही बड़ा था. घर में बग़ीचा था. बग़ीचे में गूलर और दीगर फलों के बहुत से दरख़्त थे. गर्मियों की छुट्टियों में हम ख़ूब शरारतें करते थे. 

हमारे घर में फुलवारी भी बहुत थी. इनमें बेला, गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली, मोगरा जैसे बहुत से फूलों के पौधे व बेलें थीं. हमारा घर ही नहीं, बल्कि आसपास का इलाक़ा भी इन फूलों की ख़ुशबू से महकता रहता था. अम्मी को मोगरा के फूल पहनने का बहुत शौक़ था. वे चांदी के तार की बालियों में बेला के फूलों को पिरोकर कानों में पहना करती थीं और बालों में बेला के गजरे भी लगाती थीं. हमारी दादी जान भी कानों में फूल पहना करती थीं. वे मेज़ पर रखे पंखों पर फूलों के गजरे डाल देतीं, जिससे सारा घर-आंगन महक उठता था. हमारे घर से बहुत से लोग फूल ले जाते थे और फिर उनके गजरे व हार बनाते थे. घर के पास एक मन्दिर था. बहुत से लोग मन्दिर में देवताओं को चढ़ाने के लिए फूल लेकर जाते थे.   
  
हमें लू की वजह से गर्मियों की भरी दोपहरी में बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी. इसलिए हम घर के भीतर ही रहते और दोपहर ढलने का इंतज़ार करते थे. कई बार हम घरवालों की नज़र से बचकर बाहर खेलने चले जाते थे. आंगन में तख़्त बिछे होते थे. उन पर सफ़ेद चादरें बिछी होतीं और गाव तकिये क़रीने से लगे हुए होते थे. शाम को घर के सब लोग इन्हीं पर बैठते थे. शाम को दादी तरह-तरह के पकौड़े बनाती थीं. रूह अफ़ज़ा शर्बत भी बनता था. उसमें बहुत सी बर्फ़ डाली जाती थी.    

गर्मियों में हम छत पर सोया करते थे. शाम को छत की साफ़-सफ़ाई की जाती. फिर पानी छिड़का जाता, ताकि छत ठंडी हो जाए. छत पर चटाइयां बिछाई जातीं. फिर उन पर दरियां बिछाई जातीं. दरियों पर रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली चादरें बिछाई जातीं और तकिये रखे जाते. क़रीब में ही पानी से भरी मिट्टी की सुराहियां रखी जातीं, गिलास रखे जाते. हम बच्चे अपनी-अपनी छोटी सुराहियां अपने सिरहाने रख लिया करते थे, ताकि रात में प्यास लगे तो अपनी ही सुराही से पानी पी लें. 

हमारे घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल था. ननिहाल और ददिहाल में सब लोग पढ़े-लिखे थे. नाना जान और दाद जान दोनों ही दानिशमंद थे. हमारी अम्मी को भी लिखने और पढ़ने का बहुत शौक़ था. वे शायरा थीं और बहुत शानदार लिखती थीं.

हमारे घर किताबों की एक अच्छी ख़ासी लाइब्रेरी थी. उनमें अरबी, उर्दू, इंग्लिश और हिन्दी की किताबों की भरमार थी. आज भी यही हाल है. इनमें पंजाबी की किताबें भी शामिल हो गई हैं. अम्मी की देखा-देखी हमें भी किताबों से मुहब्बत हो गई. बचपन में ही हमने लिखना शुरू कर दिया था. हमें डायरी लिखने का भी शौक़ था, जो आज भी है. डायरी में हम अपनी बातों के अलावा अपने पसंदीदा शायरों की ग़ज़लें, गीत और नज़्में लिखा करते थे. हमारी डायरी में शायरा इशरत आफ़रीं की एक ग़ज़ल दर्ज है- 
यूं ही किसी के ध्यान में अपने आप में गाती दोपहरें
नर्म गुलाबी जाड़ों वाली बाल सुखाती दोपहरें

सारे घर में शाम ढले तक खेल वो धूप और छांव का
लिपे पुते कच्चे आंगन में लोट लगाती दोपहरें

जीवन-डोर के पीछे हैरां भागती टोली बच्चों की
गलियों-गलियों नंगे पांव धूल उड़ाती दोपहरें

सरगोशी करते पर्दे कुंडी खटकाता नटखट दिन
दबे-दबे क़दमों से तपती छत पर जाती दोपहरें

कमरे में हैरान खड़े आईना जैसे हंसते दिन
ख़ुद से लड़कर गौरैया-सी शोर मचाती दोपहरें

वही मुज़ाफ़ातों के भेद भरे सन्नाटों वाले घर
गुड़ियों के लब सी कर उनका ब्याह रचाती दोपहरें

खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं
मंढे हुए पीले काग़ज़ से छनकर आती दोपहरें

नीम तले वो कच्चे धागे रंगती हुई पुरानी याद
घेरा डाले छोटी-छोटी हाथ बटाती दोपहरें

फटी-पुरानी कथरी ओढ़े धूप सेंकते बूढ़े दिन
पेशानी तक पल्लू खींचे चिलम बनाती दोपहरें

पानी की तक़सीम के पीछे जलते खेत सुलगते घर
और खेतों की ज़र्द मुंडेरों पर कुम्हलाती दोपहरें

पुरवाई से लड़ते कितने वर्क़ पुरानी यादों के
सौग़ातों के संदूक़ों को धूप दिखाती दोपहरें

दुखती आंखें ज़ख़्मी पोरें उलझे धागों जैसे दिन
बादल जैसी ओढ़नियों पर फूल खिलाती दोपहरें

ओढ़नियों के उड़ते बादल रंगों के बाज़ारों में
चूड़ी की दुकानों से वो हमें बुलाती दोपहरें

सुनते हैं अब उन गलियों में फूल शरारे खिलते हैं
ख़ून की होली खेल रही हैं रंग नहाती दोपहरें

ये तो मेरे ख़्वाब नहीं हैं ये तो मेरा शहर नहीं
किस जानिब से आ निकली हैं ये गहनाती दोपहरें          

वाक़ई बचपन से वाबस्ता यादें बहुत दिलकश होती हैं.  बशीर बद्र साहब ने क्या ख़ूब कहा है-
उड़ने दो परिन्दों को अभी शोख़ हवा में 
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते  
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