उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए...
कुछ ख़्वाब इस तरह से जहां में बिखर गए
अहसास जिस कद्र थे वो सारे ही मर गए
जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए
माज़ी किताब है या अरस्तु का फ़लसफ़ा
औराक़ जो पलटे तो कई पल ठहर गए
कब उम्र ने बिखेरी है राहों में कहकशां
रातें मिली स्याह, उजाले निखर गए
सहरा में ढूंढते हो घटाओं के सिलसिले
दरिया समन्दरों में ही जाकर उतर गए
कुछ कर दिखाओ, वक़्त नहीं सोचने का अब
शाम हो गई तो परिंदे भी घर गए
'फ़िरदौस' भीगने की तमन्ना ही रह गई
बादल मेरे शहर से न जाने किधर गए
-फ़िरदौस ख़ान
11 सितंबर 2008 को 9:53 am बजे
कुछ ख़्वाब इस तरह से जहां में बिखर गए
अहसास जिस कद्र थे वो सारे ही मर गए
जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बगैर कितने ज़माने गुज़र गए
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बखूबी पेश किया है आपने...शानदार ग़ज़ल...
11 सितंबर 2008 को 10:56 am बजे
माज़ी किताब है या अरस्तु का फ़लसफा
औराक़ जो पलते तो कई पल ठहर गए
सहरा में ढूंढते हो घटाओं के सिलसिले
दरिया समन्दरों में ही जाकर उतर गए
bahut khoob firdaus ji......ek sher hamne kuch aisa likha tha
वो मिला तो याद आया
वो इक ख्वाब पुराना था
11 सितंबर 2008 को 12:10 pm बजे
सहरा में ढूंढते हो घटाओं के सिलसिले
दरिया समन्दरों में ही जाकर उतर गए
बहुत खूब ..
11 सितंबर 2008 को 1:25 pm बजे
अनुराग जी, बहुत उम्दा शेअर है आपका...
11 सितंबर 2008 को 2:44 pm बजे
bahut acchhey...ek ek baat
11 सितंबर 2008 को 3:41 pm बजे
Hello Firdous.
looked 4 ur mail id bt cudnt get.
R u same Firdous who was in Jamia Millia Islamia (PGD in human rights) in 2001?
11 सितंबर 2008 को 8:09 pm बजे
माज़ी किताब है या अरस्तु का फ़लसफा
औराक़ जो पलते तो कई पल ठहर गए
-बहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.
12 सितंबर 2008 को 9:32 am बजे
भई कमाल है ! किस शेर की बात हो ?
24 मार्च 2012 को 8:59 pm बजे
मैं कल का भरोसा नही करता साक़ी ,
मुमकिन है जाम तो रहे
पर शायद मै ही ना रहू....