जाड़ो का मौसम शुरू हो चुका था. हम उनके लिए स्वेटर बुनना चाहते थे. बाज़ार गए और नीले और सुनहरे रंग की ऊन ख़रीदी. सलाइयां तो घर में रहती ही थीं. पतली सलाइयां, मोटी सलाइयां और दरमियानी सिलाइयां. अम्मी हमारे और बहन-भाइयों के लिए स्वेटर बुना करती थीं. इसलिए घर में तरह-तरह की सलाइयां थीं.
हम ऊन तो ले आए, लेकिन अब सवाल ये था कि स्वेटर में डिज़ाइन कौन-सा बुना जाए. कई डिज़ाइन देखे. आसपास जितनी भी हमसाई स्वेटर बुन रही थीं, सबके डिज़ाइन खंगाल डाले. आख़िर में एक डिज़ाइन पसंद आया. उसमें नाज़ुक सी बेल थी. डिज़ाइन को अच्छे से समझ लिया और फिर शुरू हुआ स्वेटर बुनने का काम. रात में देर तक जागकर स्वेटर बुनते. चन्द रोज़ में स्वेटर बुनकर तैयार हो गया.
हमने उन्हें स्वेटर भिजवा दिया. हम सोचते थे कि पता नहीं, वह हाथ का बुना स्वेटर पहनेंगे भी या नहीं. उनके पास एक से बढ़कर एक क़ीमती स्वेटर हैं, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से देशों से ख़रीदे होंगे. काफ़ी दिन बीत गए, एक दिन हमने उन्हें वही स्वेटर पहने देखा. उस वक़्त हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. हमने कहा कि तुमने इसे पहन लिया. उन्होंने एक शोख़ मुस्कराहट के साथ कहा- कैसे न पहनता. इसमें मुहब्बत जो बसी है.
इस एक पल में हमने जो ख़ुशी महसूस की, उसे अल्फ़ाज़ में बयां नहीं किया जा सकता. कुछ अहसास ऐसे हुआ करते हैं, जिन्हें सिर्फ़ आंखें ही बयां कर सकती हैं, उन्हें सिर्फ़ महसूस किया जाता है, उन्हें लिखा नहीं जाता. शायद लिखने से ये अहसास पराये हो जाते हैं.
हम अकसर ख़ामोश रहते हैं, वह भी बहुत कम बोलते हैं. उन्हे बोलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती, क्योंकि उनकी आंखें वह सब कह देती हैं, जिसे हम सुनना चाहते हैं. वह भी हमारे बिना कुछ कहे, ये समझ लेते हैं कि हम उनसे क्या कहना चाहते हैं. रूह के रिश्ते ऐसे ही हुआ करते हैं.
उनकी दादी भी उनके लिए स्वेटर बुना करती थीं.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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