रविवार, जनवरी 27, 2019

इतवार...


आज इतवार है... हमेशा की तरह आज भी तुम चर्च गए होंगे... फ़र्क़ बस इतना है कि आज हम तुम्हारे साथ नहीं हैं... आज ही क्या... न जाने कितने अरसे से हम एक साथ चर्च नहीं गए...
तुम्हें मालूम है... हर इतवार को वही बीता हुआ इतवार सामने आकर खड़ा हो जाता है... वही सर्दियों वाला इतवार... जब फ़िज़ा में ठंडक घुल चुकी थी... सुबहें और शामें कोहरे से ढकी हुई थीं... गुनगुनी धूप भी कितनी सुहानी लगती थी... ज़र्द पत्ते अपनी शाख़ों से जुदा होकर गिर रहे थे... चर्च के सामने वाली सड़क पर सूखे पत्तों का ढेर लग जाता था... चर्च की क्यारियों में कितने रंग-बिरंगे फूल अपनी शाख़ों पर इठलाते थे... माहौल में गुलाब की भीनी-भीनी महक होती थी...
तुम्हें याद है, जब ठंडी हवाएं चल रही थीं, तब तुमने अपना गर्म कोट उतार कर हमें पहना दिया था... बिना यह परवाह किए कि तुम्हें भी उस कोट की उतनी ही ज़रूरत थी... हमारे कोट लेने से मना करने पर तुमने मुस्कराते हुए कहा था- मर्दों को उतनी ठंड नहीं लगती... सच, उस कोट में हमने जो गर्मी महसूस की, उसमें तुम्हारी मुहब्बत की शिद्दत भी शामिल थी... कितने बरस बीत गए... जाड़ो के कई मौसम गुज़र गए... लेकिन उस कोट की गरमाहट हमारी रूह में अब तक बसी हुई है...
आज भी चर्च देखते हैं, तो तुम बहुत याद आते हो... और यह इतवार... भी उसी इतवार में जा बसा है, या यूं कहें कि वो इतवार अब हर इतवार में शामिल रहता है...
सुनो, हमें फिर से तुम्हारे साथ उसी इतवार को जीना है...

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