शुक्रवार, मई 28, 2010

सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे...

मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे

रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे

रेगज़ारों में कटती रही ज़िन्दगी
ख़ार चुभते रहे, गुनगुनाते रहे

ज़िन्दगीभर उसी अजनबी के लिए
हम भी रस्मे-दहर को निभाते रहे
-फ़िरदौस ख़ान

18 टिप्‍पणियां:

  1. खूबसूरत ग़ज़ल, बहुत खूब!

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  2. रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
    ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे.
    वाह.......
    आपकी शायरी हमेशा लाजवाब होती है.

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  3. बहुत खूबसूरत गजल बहुत सुन्दर
    http://shikhakriti.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html

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  4. सुन्दर गज़ल
    रेजग़ारी में ---

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  5. गम़ों के अंधेरे तूफान डराते रहे,
    हम मंजिल की ओर कदम बढ़ाते रहे।

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  6. छोटी बहर और गहरे मानी से सराबोर ग़ज़ल...

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  7. बहुत खूबसूरत गज़ल।
    एक सुझाव - मुश्किल शब्दों का अर्थ लिख दिया करें, जैसे यहां ’रेगज़ारों’ का अर्थ हमें नहीं मालूम, अगर अर्थ मालूम चल जाये तो समझने में थोड़ी आसानी हो जाती है, नहीं तो अन्दाजे ही लगाने पड़ते हैं।
    वाह वाह तो बनती ही है :)

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  8. अच्छे लोग अच्छा ही सोचते हैं इसलिए अच्छा लिखते भी है। शानदार रचना।

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  9. कुछ लोग इसलिए अच्छा लिख पाते हैं, क्योंकि वे खुद बहुत अच्छे होते हैं।

    -इस ग़ज़ल के सभी शे'अरों में बहुत सारे लोग खुद को पाएंगे...
    सहज और खूबसूरत ग़ज़ल...

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