गुरुवार, मार्च 25, 2010

मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है...हालांकि...आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है...मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समन्दर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है...इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है...बहुत अकेला...क्योंकि भौतिकतावाद ने 'अपनापन' जैसे जज़्बे को कहीं पीछे छोड़ दिया है...

6 टिप्‍पणियां:

  1. ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

    लाजवाब पंक्तियाँ ..............

    जवाब देंहटाएं
  2. "बाद मुद्दत तुम्हें देख कर ये लगा
    जैसे बेचैन दिल को करार आ गया"
    बात करने से ही बात नहीं बनती है ,दिल मिले तो दूरियां कम हो कर एकात्मता की स्थति ही सच्चा संवाद है ,यही प्रेम है

    जवाब देंहटाएं
  3. भीड़ से घिरा है ,फिर भी अकेला है ..यही तो दुर्भाग्य है फ़िरदौस जी!

    जवाब देंहटाएं
  4. सही है तब हम दूर थे पर कितने नज़दीकी थी.

    जवाब देंहटाएं
  5. मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं.....
    हम भी आपसे सहमत हैं.....

    जवाब देंहटाएं