बुधवार, मार्च 24, 2010

मेरे रात और दिन


नज़्म
मेरे
रात और दिन
काली डोरियों में पिरे
सुनहरे तावीज़ों की तरह हैं
जिनके
दूधिया काग़ज़ पर
जाफ़रानी धूप ने
रफ़ाक़तों से भीगे मौसम के
कितने ही नगमें लिख छोड़े हैं
और
इस तहरीर का
हर इक लफ्ज़
पल-दर-पल
यादों की किश्ती में बिठाकर
मुझे
मेरे माज़ी के जज़ीरे पर
ले चलता है
और मैं
उन गुज़श्ता लम्हों को
अपने मुस्तक़बिल की किताब में
संजोने के सपने देखने लगती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेजोड़ कविता। कितनी उम्दा सोच और कल्पना!

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  2. बहुत खूब ..
    उन गुज़श्ता लम्हों को
    अपने मुस्तक़बिल की किताब में
    संजोने के सपने देखने लगती हूं...

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  3. मेरे
    रात और दिन
    काली डोरियों में पिरे
    सुनहरे ताबीज़ों की तरह हैं
    जिनके
    दूधिया काग़ज़ पर
    जाफ़रानी धूप ने
    रफ़ाक़तों से भीगे मौसम के
    कितने ही नगमें लिख छोड़े हैं...

    अलहम्दु लिल्लाह...बहुत ही दिलकश नज़्म है...

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  4. बेजोड़ कविता। कितनी उम्दा सोच और कल्पना!

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