नज़्म
मेरे
रात और दिन
काली डोरियों में पिरे
सुनहरे तावीज़ों की तरह हैं
जिनके
दूधिया काग़ज़ पर
जाफ़रानी धूप ने
रफ़ाक़तों से भीगे मौसम के
कितने ही नगमें लिख छोड़े हैं
और
इस तहरीर का
हर इक लफ्ज़
पल-दर-पल
यादों की किश्ती में बिठाकर
मुझे
मेरे माज़ी के जज़ीरे पर
ले चलता है
और मैं
उन गुज़श्ता लम्हों को
अपने मुस्तक़बिल की किताब में
संजोने के सपने देखने लगती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान

बेजोड़ कविता। कितनी उम्दा सोच और कल्पना!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ..
जवाब देंहटाएंउन गुज़श्ता लम्हों को
अपने मुस्तक़बिल की किताब में
संजोने के सपने देखने लगती हूं...
मेरे
जवाब देंहटाएंरात और दिन
काली डोरियों में पिरे
सुनहरे ताबीज़ों की तरह हैं
जिनके
दूधिया काग़ज़ पर
जाफ़रानी धूप ने
रफ़ाक़तों से भीगे मौसम के
कितने ही नगमें लिख छोड़े हैं...
अलहम्दु लिल्लाह...बहुत ही दिलकश नज़्म है...
achchhi nazm hai...
जवाब देंहटाएंबेजोड़ कविता। कितनी उम्दा सोच और कल्पना!
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