फूल और नारियल...


फ़िरदौस ख़ान
औरंगज़ेब रोड का नाम बदलने की ख़बर पर बरसों पुराना एक वाक़िया याद आ गया...  बात उस वक़्त की है, जब हम बारहवीं क्लास में थे... स्कूल में आने के बाद हमें पता कि आज म्यूज़िक टीचर की सालगिरह है... हम बाहर जाकर कुछ ख़रीद नहीं सकते थे, इसलिए हम माली के पास गए और उससे कहा कि आज हमारे टीचर की सालगिरह है, क्या हमें कुछ फूल मिल सकते हैं... उसने हमें फूल लेने की इजाज़त दे दी... हमने फूल लिए और अपने टीचर को सालगिरह की मुबारकबाद थी... टीचर ने फूल हारमोनियम पर रख दिए और कहने लगे कि आज तुम सबको एक ग़ज़ल सुनाता हूं... वो ग़ज़ल गाने लगे... साथ में हमारी सहेलियां भी थीं... उनके ग़ज़ल पूरी करते ही हमारी एक सखी ने हमारे दिए फूल उठाए और टीचर को देते हुए मुबारकबाद देने लगी... वो सखी की इस हरकत पर मुस्करा दिए और कहने लगे कि आज तुम्हें हरिद्वार का एक क़िस्सा सुनाता हूं...
हुआ यूं कि म्यूज़िक टीचर स्नान के लिए हरिद्वार गए थे... वहां उन्होंने फूल, नारियल और अन्य सामग्री नदी में प्रवाहित की... जहां वो खड़े से उससे कुछ दूरी पर एक व्यक्ति स्नान कर रहा था... जैसे ही नारियल उस तक पहुंचा, उसने झट से नारियल उठा लिया और कुछ मंत्र पढ़ते हुए उसे फिर से नदी में प्रवाहित कर दिया... वो ये सब देख रहे थे...
 कहानी ख़त्म होते ही सबके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कराहट आ गई... हमारी सखी ने टीचर से माफ़ी मांगी...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार
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फ़िल्मी गीतों में महकी साहित्य की ख़ुशबू...


पिछले दिनों फ़िल्मी गीतकार स्वर्गीय शैलेन्द्र जी के मित्र अनिल सराफ़ के छोटे भाई नलिन सराफ़ ने अपनी एक किताब भेजी थी... हमने इस किताब की समीक्षा की... इसे बहुत सराहा गया... काफ़ी लोगों के मेल और फ़ोन आए... पेश है समीक्षा... 

फ़िल्मी गीतों में महकी साहित्य की ख़ुशबू...
फ़िरदौस ख़ान
गीतकार शैलेंद्र ने फ़िल्मों में भी साहित्य की महक को बरक़रार रखा, इसलिए काव्य प्रेमियों ने उन्हें गीतों का राजकुमार कहा है. शैलेंद्र मन से कवि ही थे, तभी तो उनके फ़िल्मी गीतों में भी काव्य की पावन गंगा बहती है. उनसे प्रभावित होकर उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने उन्हें कविराज का ख़िताब दिया था. मुंबई के शैलेंद्र प्रशंसक परिवार ने उनकी याद में एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है मौसम सुहाना और ये मौसम हसीं. इस किताब में शैलेंद्र के गीतों, कविताओं और उनसे जुड़े संस्मरणसंग्रहीत हैं. संकलनकर्ता नलिन सराफ़ का कहना है कि मेरे बड़े भाई श्री अनिल जी, जो शैलेंद्र जी के अभिन्न मित्र रहे हैं, चाहते हैं कि उनकी रचनाएं और अनछुए जीवन के प्रसंग लोगों के सामने आएं. इसी विचार ने धीरे-धीरे मूर्तरूप लिया और नतीजतन यह पुस्तक आपके सामने है. शैलेंद्र की कई फ़िल्मी रचनाएं, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं, कई फ़िल्मी गीत जो रिकॉर्ड तो हुए, लेकिन परदे तक नहीं पहुंचे, कुछ अनूठे जीवन प्रसंग, लोगों के अपने अनुभव, उनके कई दुर्लभ चित्र और हस्तलिखित पत्र आदि को इस किताब में शामिल किया गया है.

नलिन सराफ़ कहते हैं, शैलेंद्र का असली नाम शंकर दस राव है, लेकिन साहित्य में शंकर शैलेंद्र और फ़िल्मों में वह शैलेंद्र नाम से जाने जाते हैं. बिहार के एक खेतीहर मज़दूर का वंशज, मिलेट्री हॉस्पिटल के मामूली फौजी क्लर्क का पुत्र जिसका जन्म एक निर्धन दलित परिवार में हुआ और बचपन अत्यंत तकली़फ़ों में गुज़रा. वह अपनी प्रतिभा, कुशाग्र बुद्धि और लगन के कारण ही शंकर दास राव से प्रसिद्ध कवि-गीतकार शैलेंद्र की मंज़िल तक पहुंच पाया. मेरा उनसे काव्यात्मक परिचय 1954 में फ़िल्म बूट पालिश से हुआ, जिसका गीत नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है? मेरे अंतर्मन को छू गया. कालांतर में उन्होंने बताया कि यह गीत उन्हें अपने बच्चे की बंद मुट्ठियों को देखकर उपजा था. वह कर्मयोगी थे. वह भाग्य पर आंख मूंदकर विश्वास करने वालों में से नहीं थे. इसलिए इस गीत में उन्होंने यह बात ज़ाहिर की-मुट्ठी में है तक़दीर हमारी, हमने क़िस्मत को वश में किया है. वैसे वह जीवन की किसी भी घटना को अपने गीतों में सहज पिरो देते थे. उनकी प्रारंभिक ग़ैर फ़िल्मी रचनाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी, मध्यमवर्गीय समस्याओं, मज़दूरों का मानसिक द्वंद्व लिए होती थीं. वे मूलत: मज़दूर हृदय इंसान थे, अत: उनकी रचनाओं में इसकी झलक सा़फ़ नज़र आती है. वह अपनी लेखनी के बल पर क्रांति लाने के पक्षधर थे. प्रसिद्ध गायक तलत महमूद के कहने पर उन्होंने एक ख़ूबसूरत गीत लिखा था-
है सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है ख़ुशी, आंसू भी छलकते आते हैं…

वह लोक नाट्य मंच यानी इप्टा से शुरू से जु़डे थे. उसके हर कार्यक्रम में पूरे जोश से सक्रिय रहते और अपने गीत सुनाया करते थे. ऐसे ही एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर ने उनका गीत- जलता है पंजाब सुना और बेहद प्रभावित हुए. उन्होंने राजकपूर से इसकी चर्चा की, जो स्वयं के बैनर तले फ़िल्म निर्माण शुरू कर चुके थे. राजकपूर ने ऐसे की एक कार्यक्रम में उनका गीत-मोरी बगिया में आग लगाय गयो गोरा परदेशी सुना और मोहित हो उठे. उन्होंने शैलेंद्र से फ़िल्मों के लिए लिखने को कहा, लेकिन उनके प्रस्ताव को शैलेंद्र ने बड़ी नम्रता और दृढ़ता से यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि मैं फ़िल्मों के लिए नहीं लिखता. मगर आगे जाकर पारिवारिक मजबूरियों की वजह से उन्होंने राजकपूर से मुलाक़ात की और इस तरह वह आरके बैनर के स्थायी गीतकार बन गए, साथ ही शंकर-जयकिशन के भी. इसके अलावा उन्होंने प्राय: सभी प्रमुख संगीतकारों के साथ काम किया. उन्होंने नए संगीतकारों के लिए भी लिखा. राजकपूर की फ़िल्मों की कथावस्तु और उनके विचार शैलेंद्र के विचारों से मेल खाते थे. वह अपनी फ़िल्म में अधिक से अधिक गीत शैलेंद्र के ही रखना चाहते थे. इसका प्रमुख कारण उनकी सरल एवं गेय शब्दावली तो था ही, साथ ही उनके गीत पूरे दृश्य को आत्मसात कर कहानी का हिस्सा बन जाते थे और उसके प्रवाह को आगे बढ़ाने में सहायक होते थे. राजकपूर की फ़िल्म मेरा नाम जोकर के शीर्ष गीत के मुखड़े की प्रेरणा उन्हें श्रीमदभगवद गीता से मिली. यह गीत-जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां, राजकपूर के लिए लिखा गया आख़िरी गीत था, वह भी सिर्फ़ मुखड़ा ही लिख पाए, जिसे बाद में उनके बेटे शैली ने पूरा किया.

एक बार उनसे पूछा गया कि कभी आपने अपनी आत्मकथा को काव्य रूप में ढाला या ढालने की सोची? जवाब में उन्होंने श्री 420 के गीत-दिल का हाल सुने दिलवाला की इन पंक्तियों का ज़िक्र किया-
छोटे से घर में ग़रीब का बेटा
मैं भी हूं मां के नसीब का बेटा
रंजो-ग़म बचपन के साथी
आंधियों में जली जीवन की बाती
भूख ने बड़े प्यार से पाला
ख़ुश हूं, मगर आबाद नहीं मैं
मंज़िल मेरे पास खड़ी है
पांव में लेकिन बेड़ी पड़ी है
टांग अड़ाता है दौलत वाला…

शैलेंद्र बंगाली भाषा और बंगाल के लोक संगीत के बड़े प्रशंसक थे. यही वजह थी कि सलिल चौधरी ने जब अपना हिंदी फ़िल्मी सफ़र बिमल राय की फ़िल्म दो बीघा ज़मीन से शुरू किया तो उनकी पहली पसंद शैलेंद्र थे. उन्होंने अपने यादगार गीत-संगीत की रचना से उस फ़िल्म को अमर बना दिया. इसके बाद सलिल चौधरी ने अधिकांश फ़िल्में उन्हीं के साथ कीं. एसडी बर्मन के साथ भी उन्होंने कई फ़िल्में के गीत लिखे. उन्होंने 1955 की फ़िल्म मुनीमजी का शिव विवाह और मद भरे नैन के गीतों से लेकर 1967 की ज्वैलथीफ तक में अनेक मधुर गीत लिखे. बर्मन दा के साथ गाइड के गीतों ने तो फ़िल्म को अमरत्व तक पहुंचा दिया. गाइड से शैलेंद्र के जुड़ाव की एक रोचक गाथा है. एक रात बर्मन दा के विशेष आग्रह पर शैलेंद्र उनसे मिलने होटल सन एंड सेंड में गए, जहां वह देवानंद और विजय आनंद के साथ बैठे हुए थे. दादा ने बताया कि गोल्डी (विजय आनंद) गाइड के गीत शैलेंद्र से लिखवाना चाहते हैं. शैलेंद्र पहले भी विजय आनंद की फ़िल्म बाज़ार के लिए गीत लिख चुके थे. शैलेंद्र थोड़ा सकपकाए, क्योंकि गाइड के लिए वह दूसरे गीतकार को अनुबंधित कर चुके थे और दो गाने रिकॉर्ड भी हो चुके थे. लेकिन विजय आनंद ने ज़ोर देकर कहा कि गाइड के कथानक के साथ सिर्फ़ आप ही के गीत आत्मसात हो सकते हैं. शैलेंद्र ने इस आत्मीय दबाव पर सोचकर कहा कि पहले आप उस गीतकार को उसका पूरा पारिश्रमिक देकर मुक्त कर दीजिए. भले ही उससे आपको और नहीं लिखवाना है. अपने पारिश्रमिक के रूप में उन्होंने एक भारी रक़म की मांग रख दी, जो इस गीतकार की रक़म और उस व़क्त की प्रचलित रक़म से कई गुना ज़्यादा थी. विजय आनंद ने उसे फ़ौरन मंज़ूर करते हुए उन्हें अनुबंधित कर लिया. उसी वक़्त उन्होंने एक गीत का यह मुखड़ा लिखकर उन्हें दे दिया-
दिन ढल जाए, हाय रात न जाए
तू तो न आई, तेरी याद सताए…

इस फ़िल्म के सभी गीत बहुत लोकप्रिय हुए. इस बारे में देवानंद का कहना है, गाइड के गीत इसकी सबसे बड़ी ताक़त थे. मैं हमेशा मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी और नीरज से मुतासिर रहा, पर उसके गीतों में शैलेंद्र ने जैसे अपनी आत्मा उंडेल दी थी. बक़ौल लता मंगेशकर, उनके दिल में सदा एक आग धधकती रहती, जो इस अन्यायी समाज-व्यवस्था को फूंक देना चाहती थी. फ़िल्मी गीतों की हज़ार-हज़ार बंदिशों में रहकर भी वह दर्द और वह आग उनके गीतों में स्पष्ट दिखाई देती थी. बाबू जगजीवनराम ने कहा था कि संत रविदास के बाद शैलेंद्र हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय हरिजन कवि हैं. शायर और फ़िल्मी गीतकार हसरत जयपुरी के मुताबिक़, शैलेंद्र जैसा हिंदी फ़िल्म गीतकार आज तक न कोई हुआ है और न कोई होगा.

30 अगस्त, 1923 को जन्मे शैलेंद्र ने 14 दिसंबर, 1966 को आख़िरी सांस ली. उनकी पत्नी शकुंतला शैलेंद्र कहती हैं, मन की अंधियारी सतहों पर एकाएक यादों के सौ-सौ मोती झिलमिलाने लगते हैं. बिछोह पर बना कुहासा धीमे-धीमे छंटने लगता है और हंसता-मुस्कराता अतीत मुझे अपने आप में समेट लेता है. स्वर्गीय पति की यादों के मेले जैसे इर्द-गिर्द जु़डने लगते हैं और अनगिनत फूलों की महक मेरी सांसों में समा उठती है. फिर मादक रस में डूबी हुई उनकी गुनगुनाहट पल-प्रतिपल मन प्राणों को दुलारने लगती है-मैं तो तुम्हारे पास हूं शकुन. भले ही दुनिया के लिए मर गया हूं, पर तुम्हारे लिए तो हमेशा जीवित रहूंगा. राजकपूर शैलेंद्र की मौत से बहुत दुखी हुए थे. उन्होंने कहा था, कमबख्त शायर था न. जाने के लिए भी उसने क्या दिन चुना? मेरा जन्मदिन.

शैलेंद्र कबीर, सूरदास, तुलसीदास आदि की तरह सरल और सीधी बात काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करने वाले गीतकार थे. उन्होंने आम आदमी की बोली में उनके दिल दिल की बात सामने रख दी. यही वजह है कि उनके गीत सीधे दिल में उतर जाते हैं. भले ही हिंदी साहित्य ने उनकी उपेक्षा की, लेकिन भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग ने 1985 में प्रकाशित देशभक्ति की कविताएं संकलन में भारतेंदु हरिश्चंद्र, हरिओम, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत जैसे महान कवियों की रचनाओं के साथ शैलेंद्र की भी एक कविता प्रकाशित कर उन्हें सम्मानित किया.
तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग, तो उतार ला ज़मीन पर…
बहरहाल, पाठकों ख़ासकर शैलेंद्र के प्रशंसकों के लिए यह एक बेहतरीन किताब है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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मेवात के जोह़ड और गंवई दस्तूर


फ़िरदौस ख़ान
भारत एक कृषि प्रधान देश है. इसलिए प्राचीनकाल से ही यहां तालाबों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है. तालाब उपयोगी होने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग भी रहे हैं. भारत में जल देवता को पूज्य मानते हुए तालाबों की पूजा-अर्चना की जाती रही है. आज भी गांव-देहात में मंगल कार्यों के मौक़ों पर महिलाएं इकट्ठी होकर तालाबों को पूजती हैं. पुराने ज़माने में जहां लोग प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करते हुए उनका संरक्षण भी किया करते थे, वहीं आज के दौर में इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग करके विनाशकारी माहौल पैदा किया जा रहा है. प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन की वजह से ही आज जल, जंगल और ज़मीन पर ख़तरे के बादल छाये हुए हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्राकृतिक संसाधनों की उपयोगिता को जानते और समझते थे, तभी उन्होंने कहा था कि क़ुदरत सभी की ज़रूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन एक व्यक्ति का भी लालच पूरा नहीं कर सकती. लेकिन आज व्यक्ति के लालच की वजह से कहीं सूखे, तो कहीं बाढ़ के हालात बन गए हैं.
           
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक मेवात का जोहड़ में मेवात के जोह़डों पर रौशनी डाली गई है. इसके साथ ही मेवात में आज़ादी के आंदोलन और विभाजन, मेवात को लेकर महात्मा गांधी के सपने, मेवात में रचनात्मकता को चुनौतियों और मेवात के इतिहास के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है.
हरियाणा के फिरोजपुर झिरका, नूंह, पलवल, सोता, फ़रीदाबाद, गुड़गांव, राजस्थान के रामगढ़, किशनगढ़, खैरपल, तिजारा, कुम्हेर, डीग, पहा़डी और उत्तर प्रदेश के आगरा और मथुरा के यमुना तट के हिस्से को मेवात इलाक़ा कहा जाता है. बक़ौल लेखक राजेन्द्र सिंह, महात्मा गांधी का मेवात में जोहड़ पुस्तक महात्मा गांधी द्वारा अपने जीते जी मेवात के लिए किए गए समर्पण की दास्तान है. महात्मा गांधी ने मेवात को बचाने-बसाने के लिए 19 दिसंबर, 1947 को सोहना (हरियाणा) और नोगांवा (राजस्थान) के बीच घासेडा गांव में जाकर राजस्थान के अलवर-भरतपुर से उत्तर प्रदेश के अलीगढ़-मथुरा-आगरा बाग़पत से आए और हरियाणा के मेवों की सभा में जाकर उन्हें यहीं बसे रहने को कहा. जब ये लोग अच्छे से अपनी जगह बसे रहे तो पाकिस्तान गए बहुत से मेव वापस आकर मेवात में बसे. उन्होंने अपनी पुरानी धरती मेवात में वापस जाने की मांग की. बापू के विश्वास से उजड़ता मेवात बच गया. जो उजड़े थे, वे वापस आकर बस गए. यह मेवों का मेवात बन गया. भारत की राजधानी ख़ासकर राष्ट्रपति भवन मेवों के गांव उजाड़ कर अंग्रेजों ने बनाया था. जिन्हें आज मेव कहते हैं, वे मीणा, राजपूत, गुर्जर, अहीर, त्यागी, जाट थे, जो धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गए थे. ये अरावली पहाड़ियों की कंदराओं, चोटियों पर छुपकर रहना पसंद करते थे. पहाड़ियों में अपने घर बनाकर रहते थे. झोपड़ी को चारों तरफ़ से घेरकर पेड़ों के झुरमुट में रहना इन्हें पसंद था. इनका जीवन जंगल, जंगली जानवरों के शिकार पर चलता था. इसलिए अरावली पर्वत मालाओं में इनके लिए अनुकूल थीं. मेवाती में इसे काला पहाड़ कहते हैं. इस पहाड़ी क्षेत्र के बहुत से गांव जोहड़ से पानीदार बने हुए थे. जोहड़ ही इनका सबकुछ है.

हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल और ज़मीन का पोषण होता है. भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं. इसलिए वे वर्षा के जल को उसी स्थान पर रोक लेते थे. उनकी जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ थी. इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझबूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब नाए जाते थे. इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था. इनके निर्माण, रखरखाव, मरम्मत आदि के कामों से गांव के संगठन को मज़बूत बनाने में मदद मिलती थी. मेवात आज भी तालाबों को खरा मानता है. उन्हें बनाता-संभालता है. उनके घरेलू सभी काम तालाब से पूरे होते हैं, और सभी ग्रामवासी मिलकर मेहनत करके जोहड़ बनाते थे.

तालाबों के रखरखाव के लिए गांव के लोग सर्वसम्मति से कुछ नियम भी बनाते थे, जिसे गंवई दस्तूर कहा जाता था. ये दस्तूर गंवई बही में भी लिखे जाते थे या मौखिक परंपरा के ज़रिये पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते जाते थे. गांव में आने वाले बाहरी व्यक्ति को भी इन गंवई दस्तूर का पालन करना प़डता था. अलवर ज़िले के गांवों के गंवई दस्तूर के मुताबिक़, तालाब की आगोर में कोई जूता लेकर प्रवेश नहीं करता था. शौचादि के हाथ अलग से पानी लेकर आगोर के बाहर ही धोये जाते थे. आगोर में किसी गांव सभा की अनुमति के बिना मिट्टी खोदना मना होता था. हर साल जेष्ठ माह में पूरा गांव ही मिलका आगोर से मिट्टी निकालता था. आगोर से ही नहीं, बल्कि तालाब के जलग्रहण क्षेत्र तक में शौचादि के लिए जाना मना था. किसी प्रकार गंदगी फैलाने वाले को तालाब की स़फाई करके प्रायश्चित करने का सुझाव दिया जाता था. प्रायश्चित के लिए तालाब की पाल पर पे़ड लगाने तथा उसके ब़डा होने तक उसकी देखभाल करने की परंपरा थी. तालाब के जलग्रहण क्षेत्र से मिट्टी कटकर नहीं आए और तालाब में जमा नहीं हो, इसकी व्यवस्था तालाब बनाते समय ही कर दी जाती थी. इससे लंबे समय तक तालाब उथले नहीं हो पाते थे. जब तालाब की मरम्मत करने की ज़रूरत होती थी, पूरा गांव मिल-बैठकर, तय करके इस काम को करता था. तालाब से निकलने वाली मिट्टी खेतों में डालने या कुम्हारों के काम आती थी. तालाब को गांव की सार्वजनिक संपत्ति माना जाता था. गांव के लोग जब किसी दूसरे गांव को जाते थे, तो सबसे पहले वह तालाब को अपने गांव की संपत्ति में गिनाया करते थे. गांव का जैसा तालाब होता था, वैसा ही उस गांव को माना जाता था. गांव का तालाब अच्छा है तो उस गांव को समृद्ध, संगठित, शक्तिशाली माना जाता था. यह भी कि वह गांव अपने महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम है, यह मान लिया जाता था. यह परंपरा 1860 तक चली. इसके बाद अंग्रेजों ने इन परंपराओं को ख़त्म करने के लिए कई योजनाएं बनाईं. अंग्रेजों की नीतियों ने रंग दिखाना शुरू किया और ग्राम समाज के टूट जाने के कारण तालाबों का निर्माण, रखरखाव और मरम्मत बंद हो गई. तालाबों के साथ-साथ गांव के संगठन भी बिखरने लगे. इसके बावजूद आज भी मेवात का सामुदायिक संगठन देश के दूसरे हिस्सों से इस मामले में काफ़ी अच्छा है.
बड़े बांध बनाने पर भारत सरकार 2008 तक अरबों-खरबों रुपये ख़र्च कर चुकी है. इन योजनाओं से दो करोड़ हैक्टेयर ज़मीन सिंचित होने का सरकारी दावा किया गया था, लेकिन हक़ीक़त में आज कितनी ज़मीन की सिंचाई ये योजनाएं कर रही हैं, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता. देश में तालाबों की उपेक्षा करने की भूल आज भी की जा रही है. 1950 में देश के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 फ़ीसद सिंचाई तालाबों से की जाती थी. तालाबों में पाए गए शिलालेख इसका प्रमाण हैं. पिछले बरसों के भयंकर अकाल ने एक फिर तालाबों की याद दिलाई है. इसलिए गत वर्षों में छोटे-बड़े दस हज़ार से ज़्यादा तालाब, जोहड़, बांध बनाए गए या उनकी मरम्मत कराई गई है. इन पर तक़रीबन 15 करोड़ रुपये ख़र्च हुए. मिसाल के तौर पर गोपालपुर गांव को ही लें, जहां 1986 में सिंचाई और पीने के पानी वाले कुएं सूख गए थे. ज़मीन में कुछ पैदा ही नहीं हो रहा था. तभी इस गांव के तालाबों के निर्माण का काम शुरू किया गया और 1987 के जून तक तीन बड़े तालाब बनाए गए. गांव वाले इन्हें बांध कहते हैं. इनके निर्माण कार्य में दस हज़ार रुपये की क़ीमत का गेहूं दिया गया. जुलाई 1987 में इस इलाक़े में कुल 13 सेंटीमीटर वर्षा हुई. यह सारी वर्षा एक साथ ही 48 घंटे के अंदर हो चुकी थी. इनके पानी से ज़मीन पुन: सजल हुई और गांव के आसपास के 20 कुओं का जलस्तर बढ़कर ऊपर आ गया. वर्षा का पानी अपने साथ जंगल और पहाड़ियों से पत्ते आदि बहाकर ले आया था, जो तालाबों की तली में बैठ गया. बड़े तालाब खेतों की ज़मीन पर बने हुए थे. इसलिए नवंबर तक तालाबों का पानी तो नीचे की ज़मीन की सिंचाई करने के काम में ले लिया गया और तालाब के पेटे में गेहूं की फ़सल बो दी गई. एक फ़सल में केवल इन तालाबों की ज़मीन से ही तीन सौ क्विंटल अनाज पैदा हुआ, जिसकी क़ीमत तक़रीबन पौन लाख होती है. इसके अलावा तालाब में पूरे साल पानी भरा रहा. इसे पशुओं के पीने के काम में लिया गया और तालाब के चारों तरफ़ उगी घास पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल की गई. इसके साथ ही वातावरण भी हराभरा रहा.

हमारे देश में ऐसी अनगिनत मिसालें मिल जाएंगी, जब लोगों ने ख़ुद पहल करते इस तरह के बेहतरीन कामों को अंजाम दिया है. बहरहाल, यह किताब मेवात के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मुहैया कराती है. चूंकि किताब के लेखक राजेन्द्र सिंह अपने विद्यार्थी जीवन से ही संपूर्ण क्रांति आंदोलन से जुड़े रहे हैं और आजकल गंगा नदी की अविरलता और निर्मलता के लिए संघर्षरत हैं. उन्होंने जल संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है. फ़िलहाल वह भारत सरकार के नदी जोड़ योजना के पर्यावरण विशेषज्ञ समिति एवं योजना आयोग के अंतर मंत्रालय समूह और राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य हैं. इस किताब में उनके कार्यों की झलक भी साफ़ दिखाई पड़ती है. यह कहना ग़लत न होगा कि यह किताब जल संरक्षण के प्रति पाठकों को जागरूक करती नज़र आती है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : मेवात का जोहड़
लेखक : राजेन्द्र सिंह
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
क़ीमत : 400 रुपये 

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परस्तिश


हमारी एक दोस्त ने हमसे पूछा- क्या तुम्हारी उनसे लड़ाई होती है.
हमने कहा- नहीं, कभी नहीं होती.
वो हैरान होकर बोली- ऐसा कैसे हो सकता है कि आप दोनों कभी लड़ते ही नहीं. ये तो नामुमकिन है. जहां मुहब्बत होती है, वहां गिले-शिकवे भी होते हैं और लड़ाइयां भी होती हैं.
हमने कहा- तुम सही कहती हो, जहां मुहब्बत होती है, वहां गिले-शिकवे भी होते हैं और लड़ाई-झगड़े भी ख़ूब हुआ करते हैं... लेकिन जहां मुहब्बत में परस्तिश हो, वहां कैसे गिले-शिकवे और कैसे लड़ाई-झगड़े...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार
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गर्व किस बात का


फ़ेसबुक पर अकसर ऐसी पोस्टें देखीं जाती हैं, जिनमें लिखा होता है-
"मुझे फ़लां मज़हब का होने पर गर्व है, मुझे फ़लां ज़ात का होने पर गर्व है" (ऐसी पोस्टें लिखने वालों में मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम दोनों ही शामिल हैं)

क्या ये सच में गर्व करने की बात है...? क्या मज़हब और ज़ात ही गर्व करने लायक़ हैं?
हम किस मज़हब को मानने वाले या किस ज़ात वाले ख़ानदान में जन्म लेते हैं, ये हमारे हाथ में नहीं है...
हम अपनी मिसाल देते हैं, हम इस्लाम को मानने वाले ऐसे ख़ानदान में पैदा हुए, जहां हमारे पापा पठान हैं और अम्मी शेख़ सिद्दीक़ी...
आज हम कहें कि हमें मुसलमान होने पर गर्व है, अपने ख़ान होने पर गर्व है...
फ़र्ज़ करें, अगर हम किसी ग़ैर मुस्लिम और समाज के सबसे निचली ज़ात वाले ख़ानदान में पैदा होते, तो क्या हमें अपने मज़हब और ज़ात पर शर्मसार होना चाहिए था... नहीं न... ?
फिर क्यों हम ऐसी बातों को बढ़ावा देते हैं, जो समाज में मुख़्तलिफ़ तबक़ों के बाच दूरियां पैदा करती हैं...
याद रखें हम सबका ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम है, जो जन्नत में रहा करते थे... इसलिए ख़ुद को आला और दूसरे को कमतर समझना अच्छी बात नहीं है...

तस्वीर गूगल से साभार
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लम्बे बाल...


फ़िरदौस ख़ान
बचपन की कुछ बातें ऐसी हुआ करती हैं, जिन्हें हम कभी भुला नहीं पाते... हमारी बड़ी ख़ाला अपने परिवार के साथ हमारे घर रहने आईं... उनकी बड़ी बेटी शबनम हमसे क़रीब पांच साल बड़ी थी... उस वक़्त हमारी उम्र पांच-छह साल रही होगी... उसे हमारे बालों से बहुत चिढ़ थी... पापा हमारे बेबी कट बाल कटवाते थे... हमारे बाल घने थे, लेकिन शब्बो आपा के बाल बहुत हल्के थे...
एक रोज़ हमारे ख़ालू साहब ने कहा कि बच्चों को गंजा कराते रहना चाहिए... उन्होंने नाई को बुलवा लिया... हमारे छोटे भाई और अपनी छोटी बेटी को गंजा करा दिया, फिर हमारे बाल उतरवा दिए... जब शब्बो आपा की बारी आई, तो वो कहने लगीं कि अब तुम सब गंजे हो गए हो और अब सिर्फ़ मेरे ही सिर पर बाल हैं... अब हमेशा मेरे बाल फ़िरदौस के बालों से बड़े रहेंगे... ख़ालू साहब भी ठहाके लगा-लगाकर हंसने लगे... ये सब उनकी एक साज़िश थी, अपनी बेटी शबनम को ख़ुश करने की... उस वक़्त हमें बहुत ग़ुस्सा आया... उस दिन हम बहुत रोये, अम्मी ने समझाया कि कुछ ही दिनों में बाल आ जाएंगे...
ख़ाला कुछ दिन रहकर चली गईं... इस बात को बहुत साल गुज़र गए... शब्बो आपा की शादी का बुलावा देने के लिए ख़ाला हमारे घर आईं... जाड़ो का मौसम था... हम धूप में पलंग पर बैठे मटर छील रहे थे... हमारे बाल पलंग से नीचे लटक रहे थे... ख़ाला की नज़र पड़ी, तो कहने लगीं- माशा अल्लाह ! फ़िरदौस के बाल बहुत लंबे और घने हैं... हमारी शब्बो के बाल बहुत हल्के हैं. सब तरह के साबुन और तेल लगा लिए, लेकिन बाल कभी बालिश्त भर से ज़्यादा लंबे नहीं हुए... उनकी बात सुनकर हमें बचपन का वो वाक़िया याद आ गया, जब शब्बो की वजह से ख़ालू साहब ने हमारे बाल उतरवा दिए गए थे...

ख़ुदा ने इंसान के हिस्से में जो लिखा होता है, उसे वो मिलता ही है, भले ही कोई उससे कितना ही छीनने की कोशिश करे... और जो उसके हिस्से में नहीं होता, वो उसे कभी नहीं मिलता, उसे पाने के लिए वो कितनी ही जद्दो-जहद क्यों न कर ले... कुछ चीज़ें ’गॊड गिफ़्टिड’ हुआ करती हैं, जैसे लंबे बाल...
स्कूल, कॊलेज, दफ़्तर और रिश्तेदारी में सभी लड़कियां हमारे बालों की बहुत तारीफ़ करती रही हैं... कुछ औरतों से सुना है कि जिन लड़कियों के बाल लंबे होते हैं, वो कभी ख़ुश नहीं रहतीं...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)


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सावन के झूले पड़े...


बंगले में इमारत के पीछे शीशम के कई पेड़ थे... हम बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में उसमें झूला डलवा लिया करते थे... हम बहन-भाई और हमारी सहेलियां भी उस पर ख़ूब झूलती थीं... तीज पर इतनी रौनक़ होती कि दिल बाग़-बाग़ हो जाता...सारा दिन चहकते फिरते... ये बच्चों के अपने त्यौहार हुआ करते हैं... आज न वो बंगला है, न शीशम का वो पेड़, और न ही कोई झूला... बस यादें ही रह गई हैं...
हां, अब तीज पर या यूं कहें कि सावन के बारिश वाले मौसम में ये गीत बहुत याद आता है...
सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ
तुम चले आओ, तुम चले आओ
आंचल ना छोड़े मेरा, पागल हुई है पवन
अब क्या करूं मैं जतन, धड़के जिया जैसे पंछी उड़े
दिल ने पुकारा तुम्हे, यादों के परदेस से
आती है जो देश से, हम उस डगर पे हैं कब से खड़े...

बहरहाल, आप सबको हरियाली तीज की मुबारकबाद

(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार
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दूध का रिश्ता...


फ़िरदौस ख़ान
कुछ बातें ज़िन्दगी में एक न भूलने वाला सबक़ दे जाती हैं, भले ही उनसे हमें कितनी ही तकलीफ़ क्यों न हो... कई साल पहले की बात है... तब हम एक अख़बार में जॊब करते थे... हम अपने से छोटों को नाम से पुकारते हैं और बड़ों को नाम के साथ 'भाई' कहकर बुलाते हैं... एक शख़्स का नाम शरीफ़ (बदला हुआ नाम) था, जिसे हम 'शरीफ़ भाई’ कहकर बुलाते थे...
एक रोज़ 'भाई' लफ़्ज़ का ज़िक्र छिड़ गया... 'शरीफ़ भाई' ने हमसे कहा कि तुम मुझे भाई कहती हो, लेकिन तुम्हारे भाई कहने से मैं तुम्हारा 'भाई' नहीं हो गया... हमारे मज़हब में तो सिर्फ़ दूध का रिश्ता ही छोड़ा जाता है... यानी चचेरे, ममेरे, ख़लेरे, फुफेरे भाई-बहनों में आपस में निकाह जायज़ है... जो लोग पहले एक-दूसरे को 'भाई-बहन' कहते हैं, बाद में वही लोग निकाह के बाद 'मियां-बीवी' बन जाते हैं... उसकी बात तो सही थी... सबके अपने-अपने रीति-रिवाज हैं... यहां हम इस प्रथा को ग़लत या सही नहीं ठहरा रहे हैं...

हम उसे 'भाई' कहते थे, तो उसे 'भाई' मानते भी थे... उसकी बात से हमें बहुत तकलीफ़ हुई... इस वाक़िये के बाद हमने उससे बात करना ही बंद कर दिया...
एक दिन दफ़्तर में सबने देर तक काम किया... ऒफ़िस की गाड़ी आई नहीं थी... हमारे सीनियर ने कहा कि गाड़ी पता नहीं कब तक आए, तुम 'शरीफ़' के साथ चली जाओ... मैं उससे कह देता हूं... हमने कहा कि हम गाड़ी का इंतज़ार कर लेंगे, लेकिन ’शरीफ़' के साथ नहीं जाएंगे... सीनियर ने हैरान होकर वजह पूछी, तो हमने भाई वाला वाक़िया सुना दिया...
उस दिन हम देर तक गाड़ी का इंतज़ार करते रहे...जब गाड़ी नहीं आई, तो हमारे सीनियर ने ही हमें घर पहुंचाया...

शरीफ़ की बात से हमें बहुत तकलीफ़ हुई, लेकिन उसने ज़िन्दगी में कभी न भूलने वाला सबक़ भी दे दिया... इंसान अच्छे लोगों से इतना नहीं सीखता, जितना बुरे लोग उसे सिखा देते हैं... अब हम किसी को 'भाई' कहने से पहले ये देख लेते हैं कि वो 'भाई' कहलाने के लायक़ है भी या नहीं...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार

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अजन्मे बच्चे को समर्पित एक नज़्म...


मेरे लाल !
मेरे ख़्वाबों की ताबीरें
तेरे वजूद से ही वाबस्ता थीं
तेरे चेहरे में
उसका अक्स बसा था
जिसके क़दमों में
मैं अक़ीदत के फूल चढ़ाती हूं...
मेरी जान !
आज तू मेरे साथ नहीं
लेकिन
मेरे अहसास में तू अब भी ज़िन्दा है
मेरे तसव्वुर में
तेरा चेहरा मुस्कराता है
पहले
तेरे चेहरे में
उसे ढूंढती थी
अब
उसके चेहरे में
तुझे तलाशती हूं...
मेरे लाल !
तू जहां भी हो, ख़ुश हो...
यही दुआ है मेरी
तेरे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर गूगल से साभार
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