मीरांबाई की संघर्ष-यात्रा को बयां करता है ‘रंग राची’


फ़िरदौस ख़ान
सबसे पहले ‘रंग राची’ के लेखक सुधाकर अदीब साहब को बहुत-बहुत मुबारकबाद... उनकी हर किताब की तरह यह किताब भी लोकप्रिय हो, यही दुआ है...

जाने माने लेखक सुधाकर अदीब के नए उपन्यास ‘रंग राची’ का लोकार्पण आज नई दिल्ली में मंडी हाउस स्थित साहित्य अकादमी सभागार में किया गया. मीरांबाई की संघर्ष-यात्रा को केन्द्र में रखकर लिखे गए इस उपन्यास को लोकभारती प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.

मीरा के जीवन संघर्ष पर रौशनी डालते हुए ‘रंग राची’ के लेखक सुधाकर अदीब कहते हैं कि मीरा ने स्त्रियों के संघर्ष के लिए जो सिद्धांत निर्मित किए, उन पर सबसे पहले वे ही चलीं. कृष्ण नाम संकीर्तन के सहारे मीरा ने भारत के दीन-दुखियारे समाज को उसी तरह एक सूत्र में पिरोने का काम किया जैसा कि उस भक्ति आंदोलन के युग में दूसरे संत करते आए थे. जो कार्य दक्षिण भारत में रामानुज कर चुके थे और जो कार्य रामानन्द ने उत्तर भारत में किया. जो कार्य कबीर, रैदास, चैतन्य और नरसिंह मेहता सरीखे अनेक संत एवं कविगण अपने-अपने तरीक़ों से करते आए थे, वही कार्य संत मीरा ने अपने तरीक़े से किया. दूसरे भक्त-संत जनसमर्थक थे और जनसाधारण में से ही आए थे. अतः सामन्ती व्यवस्था के वैभव और विभेद के प्रति उनके मन अरुचि होना नितांत स्वाभाविक बात थी. जबकि मीरा तो स्वयं ही सामन्ती व्यवस्था का अंग थीं. यदि चाहतीं तो वह भोग-विलासमय जीवन अपना सकती थीं, पर नहीं. वह बालपन से कृष्णार्पिता थीं. अतः उन्होंने वैभव पथ को त्यागकर साधना पथ को अपनाया. पुरुषप्रधान समाज में एक तथाकथित अबला स्त्री होकर भी उन्होंने उस निर्मम व्यवस्था का सात्विक विरोध किया, जो कृष्ण के वास्तविक गोप-समुदाय से उनके मिलन में बाधक थी. दरअसल मीरा का चरित्र स्त्री स्वतंत्रता और मुक्ति का सजीव उदाहरण है. उन्होंने जीवनपर्यंत तात्कालीन सामन्ती प्रथा को खुली चुनौती दी. वह अपने अपूर्व धैर्य के साथ उन तमाम कुप्रथाओं का सामना करती रहीं, जो स्त्रियों को लौह कपाटों के पीछे ढकेलने और उसे पत्थर की दीवारों की बन्दिनी बनाकर रखने, पति के अवसान के बाद जीते जी जलाकर सती कर देने, न मानने पर स्त्री का मानसिक और दैहिक शोषण करने की पाशविक प्रवृत्तियों थीं. मीरा का सत्याग्रह अपने युग का अनूठा एकाकी आंदोलन था, जिसकी वही अवधारक थीं, वही जनक थीं और वहीं संचालक. मीरा ने स्त्रियों के संघर्ष के लिए जो सिद्धांत निर्मित किए, उन पर सबसे पहले वे ही चलीं.

लोकार्पण समारोह में अपने अध्यक्षीय आशीर्वचन में वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि हिन्दी में बहुत कवयित्रियां हुई हैं, लेकिन जो स्थान मीरा ने बनाया वह सबके लिए आदर्श है. मीरा को करुणा, दया के पात्र के रूप में देखने की ज़रूरत नहीं है, मीरा स्त्रियों के स्वाभिमान की प्रतीक हैं. इस बेहतरीन उपन्यास के लिए मैं राजकमल प्रकाशन समूह व लेखक सुधाकर अदीब को शुभकामनाएं देता हूं.
समारोह में मुख्य अतिथि विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस उपन्यास की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह बहुत ही पठनीय उपन्यास है. इस उपन्यास की ख़ास बात यह है कि इसमें एक साथ पाठकों को शोध, निबंध, विचार सबका अनुभव होगा. मीरा की कविता की गहराई को सुधाकर जी ने बहुत ही गहराई से समझा है. इनका उपन्यास घी का लड्डू है और यही इसकी सार्थकता भी है.
मीरायन पत्रिका के संपादक सत्य नारायण समदानी ने मीरा के जीवन के ऐतिहासिक पक्ष को रेखांकित करते हुए मीरा से जुड़ी हुई कई भ्रांतियों को दूर किया. इस उपन्यास को मीरा के जीवन चरित का प्रमाणिक पुस्तक बताते हुए समदानी जी ने कहा कि मीरा मूलतः एक भक्त थीं. सुधारकर अदीब ने इस उपन्यास को लिखते समय इतिहास के साथ के न्याय किया है.
कवयित्री अनामिका ने उपन्यास के पात्रों के बीच के संबंधों के प्रस्तुतिकरण की ओर श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कराते हुए कहा कि एक रूपवति, गुणवति व विलक्षण स्त्री का अपने ससुर, पति, देवर सहित तमाम संबंधों में जीवंतता प्रदान करना मुश्किल काम है. सुधाकर जी ने अपने इस उपन्यास में इस युग के नज़रिये से उस युग की बात की है. राष्ट्र निर्माण की भूमिका में स्त्रियों के योगदान को इस उपन्यास में सही तरीक़े से प्रस्तुत किया गया है. तथ्यों का संयोजन बेहतरीन है.
प्रसिद्ध कथाकार चन्द्रकांता ने इस उपन्यास पर अपनी बात रखते हुए कहा कि रंग राची मीराबाई के जीवन का बहुआयामी दस्तावेज़ है. यह नियति से निर्वाण की कथा है. यहां मीरा की जन्मभूमि राजस्थान के रजवाड़ों की शौर्य गाथाएं भी हैं और सत्ता के लिए रचे गए षड्यंत्र भी. सोलहवीं शती के मेवाड़ के जीवन्त इतिहास के केन्द्र में है कृष्ण प्रेम की दीवानी स्वतंत्र चेता, स्वाभिमानी रूढ़ि भंजक अन्याय का प्रतिरोध करती, सर्वहित कामी स्त्री, जो पारिवारिक-सामाजिक प्रताड़ना सहती भी अपने कर्म-पथ से विचलित नहीं हुई. लेखक, मीरा की आन्तरिकता की हलचलों और द्वंद्वों को संवेदी स्वर दे कर पाठक के मन में संवेदना का उत्खनन करने में सफ़ल हुआ है. वास्तविक चरित्रों, घटनाओं, उपकथाओं में सोलहवीं सदी का मेवाड़ जीवित हो उठा है और शोषक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करती मीराबांई आज की संघर्षचेता स्त्री के साथ खड़ी नज़र आती हैं.
कार्यक्रम का संचालन अनुज ने किया और धन्यवाद ज्ञापन राजकमल समूह के निदेशक अशोक महेश्वरी ने किया. इस मौक़े पर साहित्य जगत के अनेक गणमान्य लोग मौजूद थे.

लेखक : सुधाकर अदीब
प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन
पहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग
महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211001
ईमेल : info@lokbhartiprakashan.com
दूरभाष : 0532-2427274
चलभाष : 09838514764
पृष्ठ : 448
मूल्य : 600 रुपये (हार्डबाऊंड)
(स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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आदत


एक क़िस्सा बहुत मशहूर है. एक शख़्स किसी नजूमी के पास गया और बोला- मेरी दुख-तकलीफ़ें कब ख़त्म होंगी ?
नजूमी बोला- बस छह-सात महीने और इसी तरह चलेगा.
उस शख़्स ने फिर पूछा- उसके बाद ?
नजूमी बोला- उसके बाद क्या, तुझे दुख-तकलीफ़ों की आदत पड़ जाएगी.
--------------
अमूमन ऐसा ही होता है... जब हम किसी मुसीबत में मुबतला होते हैं, तब हमें बहुत तकलीफ़ होती है... उसके बाद फिर आदत पड़ जाती है... ख़ासकर रिश्तों के मामले में... कोई बार-बार रूठता रहे, तो इंसान उसे मनाता है... लेकिन जब कोई इसे अपनी आदत ही बना ले, तो सामने वाला सब्र करके बैठ जाता है...
(Firdaus Diary)
तस्वीर गूगल से साभार
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हज़रत फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़

फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ पहले डाकू थे. वे राहगीरों को लूटते थे. बाद में लूट का माल अपने साथियों में बांट देते और जो चीज़ पसंद आती, उसे अपने पास रख लेते. रिवायत यह भी है कि वे बड़े रहम दिल और बहादुर थे. जिस काफ़िले में कोई औरत होती या जिनके पास थोड़ी रक़म होती, उनको नहीं लूटते थे और जिसको लूटते थे उसके पास कुछ न कुछ माल ज़रूर छोड़ देते थे. उनकी एक ख़ासियत यह थी कि वे डाकू होने के साथ-साथ अल्लाह की इबादत भी करते थे. वे नियमित रूप से अपने साथियों के साथ मिलकर नमाज़ पढ़ते और रोज़े (व्रत) भी रखते. मगर एक वाक़िये ने उनकी ज़िन्दगी को पूरी तरह बदल दी. उन्होंने सारे बुरे काम छोड़ कर अपनी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत और लोक कल्याण में ही गुज़ारने का संकल्प ले लिया.

एक बार जंगल में से एक क़ाफ़िला आया. क़ाफ़िले वालों ने जब यह सुना कि यह इलाक़ा फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ का है, तो वे डर से कांपने लगे. एक व्यक्ति के पास बहुत-सा धन था. उसने सोचा कि अगर धन को जंगल में कहीं छुपा दिया जाए, तो यह लुटने से बच जाएगा. इसलिए वह सुरक्षित स्थान की खोज में निकल पड़ा. इसी दौरान उसने देखा कि एक जगह एक संत (फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़) ख़ेमे में नमाज़ पढ़ रहा है. वह वहीं खड़ा हो गया और संत की नमाज़ पूरी होने का इंतज़ार करने लगा. संत ने नमाज़ पूरी करने के बाद दुआ के लिए हाथ उठाने से पहले उस व्यक्ति को इशारा किया कि वह धन की पोटली को वहीं रख दे. उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया और फिर वापस क़ाफ़िले में आ गया. डाकुओं ने क़ाफ़िले को लूट लिया. बाद में राहगीर संत के ख़ेमे में गया, तो वहां का नज़ारा देखकर हैरान रह गया. वहां डाकू लूट का माल बांट रहे थे. इतने में फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ की नज़र राहगीर पर पड़ी, तो उन्होंने उससे कहा कि उसने जहां पोटली रखी थी, वहीं से उठा ले. राहगीर अपनी पोटली लेकर चला गया. इसके बाद एक डाकू ने फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ से पूछा कि आपने उस पोटली को वापस क्यों दे दिया? सारा धन तो उसी में था. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि उस व्यक्ति ने मुझ पर विश्वास करके अपनी अमानत मुझे सौंपी थी, इसलिए मैं उसके साथ विश्वासघात भला कैसे कर सकता था.

इसी तरह एक और क़ाफ़िले को लूटने के बाद जब डाकू भोजन करने बैठे, तो एक राहगीर ने उनसे पूछा कि उनका सरदार कहां है? इस पर डाकुओं ने बताया कि वे दरिया किनारे नमाज़ पढ़ रहे हैं. राहगीर ने कहा कि क्या वे भोजन नहीं करते? एक डाकू ने जवाब दिया कि उनका रोज़ा (व्रत) है. राहगीर ने हैरानी ज़ाहिर करते हुए फिर पूछा कि इन दिनों न तो रमज़ान हैं और न ही नमाज़ का वक़्त. डाकू ने बताया कि वे नफ़िल पढ़ रहे हैं. यह सुनकर राहगीर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ के पास गया और पूछा कि अल्लाह की इबादत के साथ डकैती का क्या जोड़ है. उन्होंने राहगीर से पूछा कि क्या तूने क़ुरआन पढ़ा है? उसने हां में जवाब दिया, तो फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने यह आयत पढ़ी-
व आख़रूना आत-र-फ़ू बिज़ुनु बिहिम ख़-ल-तू अ-म-लन सालिहन
यानी दूसरों ने अपने गुनाहों का इक़रार करते हुए नेक कामों को उसके साथ गुडमुड कर दिया. वह राहगीर उनकी बात सुनकर ख़ामोश हो गया.

कहते हैं कि फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ एक महिला से प्रेम करते थे और लूट के माल का अपना हिस्सा उसी के पास भेज देते थे. वे अकसर उसके पास जाते थे. एक बार रात में कोई क़ाफ़िला आकर ठहरा और उसमें एक व्यक्ति इस आयत की तिलावत कर रहा था-
अलम यानी लिल्लज़ीन आमनू तख़ श-अ कुलबुहुम बिज़िक रिल्लाहि
यानी क्या ईमान वालों के लिए वह वक़्त नहीं आया कि उनका दिल अल्लाह के ज़िक्र से ख़ौफ़ज़दा हो जाए.

यह सुनकर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ को बेहद दुख हुआ. उन्होंने अल्लाह से अपने गुनाहों के लिए माफ़ी मांगते हुए संकल्प लिया कि अब वे सारे बुरे काम छोड़कर मानवता की सेवा करेंगे. उन्होंने जिन लोगों को लूटा था, उनके पास जाकर क्षमा मांगी. उनकी सद्भावना को देखते हुए लोग उन्हें क्षमा कर देते थे. मगर एक यहूदी ने उन्हें क्षमा नहीं किया. उनके ज़्यादा आग्रह करने पर उसने शर्त रखी कि अगर वे वहां स्थित एक टीले को हटा दें, तो वह उन्हें क्षमा कर देगा. इस पर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने टीले की मिट्टी को अपने सिर पर ढोना शुरू कर दिया. इसी दौरान एक भयंकर आंधी आई और टीले को उड़ाकर ले गई. इसके बाद उसने एक और शर्त रख दी कि अगर वे उसके सिरहाने रखी अशर्फ़ियों की थैली उठाकर उसे दे दें, तो वे उन्हें क्षमा कर देगा. उन्होंने ऐसा ही किया. यहूदी ने थैली खोली, तो वह हैरान रह गया. इसके बाद उसने यह शर्त रखी कि पहले मुझे मुसलमान कर लो, फिर माफ़ करूंगा और उन्होंने कलमा पढ़ाकर उसे मुसलमान कर लिया. इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उसने बताया कि उसने तौरेत (धार्मिक ग्रंथ) में पढ़ा था कि जिसकी तौबा सच्ची होती है, उसके हाथ से मिट्टी भी सोना बन जाती है, लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं था. इसलिए उसने थैली में मिट्टी भरकर रखी थी, जो उनका हाथ लगते ही सोना हो गई. मुझे यक़ीन हो गया कि आपका दीन सच्चा है.

फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ अपने अपराधों की सज़ा पाने के लिए ख़ुद बादशाह के दरबार में भी हाज़िर हुए और उससे दंड देने का आग्रह किया. मगर बादशाह ने उन्हें सज़ा देने की बजाय उनका आदर सत्कार किया.

एक बार की बात है कि फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ अपने बच्चे को गोद में लिए हुए प्यार कर रहे थे कि बच्चे ने सवाल किया कि क्या आप मुझे अपना महबूब समझते हैं. उन्होंने फ़रमाया कि बेशक. फिर बच्चे ने पूछा कि अल्लाह को भी महबूब समझते हैं. फिर एक दिल में दो चीज़ों की मुहब्बत कैसे जमा हो सकती है. यह सुनते ही बच्चे को गोद से उतार कर वे इबादत में मसरूफ़ हो गए. उनके बारे में मशहूर है कि उन्हें तीस साल तक किसी ने कभी हंसते हुए नहीं देखा, लेकिन जब उनके बेटे का इंतक़ाल हो गया, तो वे मुस्कराते रहे. जब लोगों ने इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने फ़रमाया कि अल्लाह इसकी मौत से ख़ुश हुआ है, इसलिए मैं भी उसकी ख़ुशी में ख़ुश हूं.

फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने अपना सारा जीवन लोक कल्याण में व्यतीत किया. वे सत्संग कर लोगों को नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलने का उपदेश देते थे.  उनका जीवन मानवता से भटके लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है. आज दुनियाभर में जेहाद के नाम पर आतंक का माहौल है. जो लोग धर्म के नाम पर क़त्ले-आम कराते हैं, उन्हें फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ के जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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हज़रत इब्राहिम-बिन-अदहम


फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत इब्राहिम-बिन-अदहम पहले बलख़ के बादशाह थे. मगर सूफ़ियाना रंग उन पर इस तरह चढ़ा कि उन्होंने अपना राजपाट त्यागकर फ़क़ीर की ज़िन्दगी अपना ली. बलख़ छोड़कर वे मक्का आ गए और वहीं लकड़ियां काटकर अपना गुज़ारा करने लगे. लकड़ियां बेचकर उन्हें जो कुछ मिलता उसका एक बड़ा हिस्सा ज़रूरतमंदों को बांट देते. उनका जीवन त्याग और जन कल्याण की एक बेहतरीन मिसाल है.

जब वे बलख़ के बादशाह थे, तो एक दिन छत पर सोते वक़्त उन्हें आहट सुनाई दी. इस पर उनकी नींद खुल गई और उन्होंने पूछा कि कौन है? तभी जवाब मिला कि तेरा परिचित. उन्होंने पूछा कि वह यहां क्या कर रहा है, तो जवाब मिला कि वह ऊंट ढूंढ रहा है. उन्होंने हैरानी ज़ाहिर करते हुए कहा कि छत पर ऊंट भला कैसे मिल सकता है? इस पर जवाब मिला कि जब तू बादशाह रहते हुए अल्लाह को पाने की कामना कर सकता है, तो फिर छत पर ऊंट भी मिल सकता है. उनका दिल अल्लाह की इबादत की तरफ़ लगाने वाले हज़रत ख़िज्र (देवदूत) थे. इसी तरह एक दिन जब इब्राहिम-बिन-अदहम अपने दरबार में बैठे थे, तो तभी हज़रत ख़िज्र वहां आए और इधर-उधर कुछ ढूंढने लगे. इस पर बादशाह ने पूछा कि वे क्या तलाश रह हैं? हज़रत ख़िज्र ने जवाब दिया कि मैं इस सराय में ठहरना चाहता हूं. उन्होंने बताया कि यह सराय नहीं, बल्कि उनका महल है. हज़रत ख़िज्र ने सवाल किया कि इससे पहले यहां कौन रहता था. उन्होंने बताया कि इससे पहले उनके पूर्वज यहां रहते थे. फिर हज़रत ख़िज्र ने कहा कि इस स्थान पर इतने लोग रहकर जा चुके हैं, तो यह सराय ही है. यह कहकर वे चले गए.

जब बादशाह को उनकी बात का मतलब समझ आया, तो वे जंगल में चले गए. वहां उनकी मुलाक़ात एक अल्लाह वाले बुज़ुर्ग से हुई, जिन्होंने उन्हें इस्मे- आज़म की तालीम दी. वे हमेशा अल्लाह की इबादत में मसरूफ़ रहते. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात हज़रत ख़िज्र से हुई, जिन्होंने बताया कि वे बुज़ुर्ग उनके भाई इलियास हैं. इसके बाद उन्होंने हज़रत ख़िज्र से दीक्षा ली.

एक बार की बात है कि बादशाह शिकार के लिए जंगल में गए. जब उन्होंने हिरण का शिकार करने के लिए हथियार उठाया, तो वह बोल पड़ा और उनसे कहने लगा कि क्या अल्लाह ने उन्हें यह जीवन दूसरों को सताने के लिए ही दिया है? हिरण की बात सुनकर उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने कभी किसी को भी कष्ट न पहुंचाने का वादा करते हुए मानवता की सेवा करने का संकल्प लिया. दरअसल, जड़ या बेज़ुबान चीज़ों का बोलना इंसान के ज़मीर की आवाज़ होती है, जो उसे किसी भी ग़लत काम को करने से रोकती है. जो व्यक्ति अपने ज़मीर की आवाज़ सुनकर उसका अनुसरण करता है, वे बुराई के रास्ते पर जाने से बच जाता है. मगर जो लोग ज़मीर की आवाज़ को अनसुना कर देते हैं. वे मानवता को त्यागकर पशुवत प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं, जो बाद में समाज और स्वयं उनके लिए घातक सिद्ध होती है.

इब्राहिम-बिन-अदहम का राजपाट से मोह भंग हो गया था. वे अपनी पत्नी और दूधमुंहे बच्चे को छोड़कर जंगल की तरफ़ चले गए. वहां उन्होंने एक लकड़हारे को अपने शाही वस्त्र देकर उसके मामूली कपड़े ले लिए. इन्हीं कपड़ों को धारण कर वे आगे की यात्रा पर निकल पड़े. घूमते-घूमते वे नेशापुर पहुंच गए और वहां की एक गुफ़ा में अपना डेरा जमाया. इस गुफ़ा में उन्होंने नौ साल तक अल्लाह की इबादत की. इसी दौरान हफ़्ते में एक दिन वे जंगल से लकड़ियां काटते और उन्हें बाज़ार में बेचकर जो कुछ मिलता उसके कुछ हिस्से से रोटी ख़रीदते और बाक़ी हिस्सा ज़रूरतमंदों में बांट देते.

वे मुरीदों को हमेशा यह हिदायत करते थे कि कभी किसी औरत या कमसिन लड़के को नज़र भरकर नहीं देखना और हज के दौरान तो बेहद सावधान रहने की ज़रूरत है, क्योंकि तवाफ़ में बहुत-सी औरतें और कमसिन लड़के भी शरीक होते हैं. एक बार तवाफ़ की हालत में एक लड़का सामने आ गया और न चाहते हुए भी उनकी निगाहें उस पर जम गईं. तवाफ़ के बाद मुरीदों ने कहा कि अल्लाह आप पर रहम करे, क्योंकि आपने हमें जिस चीज़ से रोकने की हिदायत की थी, आप ख़ुद उसमें शामिल हो गए. क्या आप इसकी वजह बयान कर सकते हैं?

उन्होंने फ़रमाया कि जब मैंने बल्ख़ छोड़ा था उस वक़्त मेरा बेटा छोटा बच्चा था और मुझे पूरा यक़ीन है कि यह वही बच्चा है. इसके बाद उनके एक मुरीद ने बच्चे को तलाश किया और उससे उसके वालिद के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि वह बलख़ के बादशाह इब्राहिम-बिन-अदहम का बेटा है, जो बरसों पहले सल्तनत छोड़कर अल्लाह की इबादत के लिए कहीं चले गए हैं. मुरीद ने उनके बेटे और बीवी को इब्राहिम-बिन-अदहम से मिलवाया. जैसे ही उन्होंने अपने बेटे को गले से लगाया, तो उसकी मौत हो गई. जब मुरीद ने वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि उन्हें ग़ैब से आवाज़ आई थी कि तू हमसे दोस्ती का दावा करता है और फिर अपने बेटे से भी मुहब्बत जताता है. यह सुनकर उन्होंने कहा कि ऐ अल्लाह ! या तो बेटे की जान ले ले या फिर मुझे मौत दे दे. अल्लाह ने बेटे के हक़ में दुआ क़ुबूल की.

एक बार की बात है कि इब्राहिम-बिन-अदहम दजला नदी के किनारे बैठे अपनी गुदड़ी सील रहे थे. तभी किसी आदमी ने आकर उनसे पूछा की बलख़ की सल्तनत छोडक़र आपको क्या मिला? उन्होंने एक सुई दरिया में डाल दी और इशारा किया. तभी हज़ारों मछलियां मुंह में एक-एक सोने की सुई लेकर सामने आ गईं. उन्होंने कहा कि उन्हें तो केवल अपनी ही सुई चाहिए. फिर एक छोटी मछली मुंह में सुई लेकर सामने आ गई. उन्होंने उस आदमी को बताया कि सल्तनत छोड़ने के बाद उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया कि इंसान को हक़ीक़त में किस चीज़ की ज़रूरत होती है.

एक बार उन्होंने पानी के लिए कुएं में डोल डाला, तो उसमें सोना भरकर आ गया. दोबारा डालने पर डोल चांदी से भरा हुआ मिला और तीसरी बार डाला, तो उसमें हीरे और जवाहारात भरे हुए थे. चौथी बार डोल कुएं में डालते वक़्त उन्होंने कहा कि उन्हें तो सिर्फ़ पानी ही चाहिए. इसके बाद डोल पानी से भरा हुआ मिला. उन्होंने उस आदमी को समझाया कि धन-दौलत और एश्वर्य नश्वर हैं. मनुष्य का जीवन इनके बिना भी गुज़र सकता है, लेकिन अल्लाह की इबादत और जन सेवा ही मनुष्य के हमेशा काम आती है. अल्लाह भी दूसरों के लिए जीने वाले लोगों को ही पसंद करता है. वे कहते थे कि अल्लाह पर हमेशा यक़ीन रखना चाहिए, क्योंकि वे कभी किसी को मायूस नहीं करता.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)
तस्वीर गूगल से साभार
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सजदा...


मेरे मौला
मेरा एक सजदा
तो ऐसा हो
जो तुझे पसंद आ जाए...
-फ़िरदौस ख़ान

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मेरे मौला तू सबसे बड़ा है...

सब कहते हैं-
तू सबसे ताक़तवर है
मैं भी मानती हूं
कि तू सबसे ताक़तवर है
क्योंकि
तू जो चाहता है
वो कर सकता है
सबसे बढ़कर
तुझे ख़ुश रहने का हक़ हासिल है
तूने कायनात बनाई
अपनी ख़ुशी के लिए
तूने आदम, जिन्नात
और हैवानों को पैदा किया
अपनी ख़ुशी के लिए
तूने उन्हें छोटी-बड़ी ख़ुशियां दीं
अपनी ख़ुशी के लिए
तूने उनसे उनकी ख़ुशियां छीनी
अपनी ख़ुशी के लिए
तूने उन्हें मौत के हवाले किया
अपनी ख़ुशी के लिए
बेशक, मेरे मौला तू सबसे बड़ा है...
-फ़िरदौस ख़ान

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हे अमर बलिदानी तुझे शत शत प्रणाम


फ़िरदौस ख़ान
हिंदुस्तान को फ़िरंगियों की ग़ुलामी से आज़ाद कराने के लिए इस धरती के सपूतों ने अपनी जान तक कुर्बान कर दी, लेकिन यह हमारे देश की बदक़िस्मती ही है कि राजनेताओं ने इस आज़ादी को केवल सत्ता हासिल करने का ज़रिया ही समझा. देश की अधिकांश आबादी आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रही है. एक तरफ़ मुट्ठी भर लोग गगनचुंबी इमारतों में बैठकर ऐश की ज़िंदगी जी रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ लाखों लोग खुले आसमान के नीचे ज़िंदगी गुज़ारने के लिए मजबूर हैं. यह कैसी आज़ादी है, जहां जनता के साथ समान बर्ताव नहीं किया जाता है. महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद समाजवादी शासन व्यवस्था के घोर समर्थक थे. उनके प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि हम उनके सपने को साकार करें. राजकमल प्रकाशन ने चन्द्रशेखर आज़ाद नामक एक किताब प्रकाशित की है. यह किताब चंद्रशेखर आज़ाद के विश्‍वसनीय साथी विश्‍वनाथ वैशम्पायन की किताब अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद पर आधारित है. किताब के लेखक मलवेन्दर जीत सिंह व़ढैच और राजवन्ती मान ने चंद्रशेखर के जीवन वृतांत के साथ उनके युग की महान गाथा को बहुत ही करीने से पेश किया है. बेशक, चंद्रशेखर आज़ाद का बलिदान आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत है.

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर रियासत के गांव भावरा में हुआ था. उनके पिता उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के गांव बदर के रहने वाले थे. आज़ाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी अकाल के वक्त अपना पैतृक गांव छोड़कर मध्य प्रदेश के अलीराजपुर रियासत के गांव भावरा में बस गए, जो अब झाबुआ ज़िले में आता है. यहीं चंद्रशेखर का बचपन बीता. बड़ा होने पर वे माता-पिता को छोड़कर बनारस चले गए, जहां उनके फूफा पंडित शिवविनायक मिश्र रहते थे. उन्हीं की मदद से उन्होंने संस्कृत विद्यापीठ में दाख़िला ले लिया और संस्कृत का अध्ययन करने लगे. उन दिनों बनारस में असहयोग आंदोलन की लहर चल रही थी. विदेशी माल न बेचा जाए, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे. चंद्रशेखर इससे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने का प्रण लिया. दरअसल, 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग़ नरसंहार ने उनको उद्वेलित कर दिया था. इसलिए वे असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत करने लगे. एक दिन वे धरना देते हुए पकड़े गए. उन्हें पारसी मजिस्ट्रेट मिस्टर खरेघाट की अदालत में पेश किया गया. उन्होंने चंद्रशेखर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया-
तुम्हारा नाम क्या है?
मेरा नाम आज़ाद है.
तुम्हारे पिता का क्या नाम है?
मेरे पिता का नाम स्वाधीन है.
तुम्हारा घर कहां पर है?
मेरा घर जेलख़ाना है.
मजिस्ट्रेट मिस्टर खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए. उन्होंने चंद्रशेखर को पंद्रह बेंतों की सज़ा सुना दी. जल्लाद ने चंद्रशेखर की निर्वसन देह पर बेंतों के प्रहार किए. हर बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी. पीड़ा सहन कर लेने का अभ्यास चंद्रशेखर को बचपन से ही था. वह हर बेंत के साथ महात्मा गांधी की जय या भारत माता की जय बोलते जाते थे. जब पूरे बेंत लगाए जा चुके, तो जेल के  नियमानुसार जेलर ने उसकी हथेली पर तीन आने रख दिए. बालक चंद्रशेखर ने वे पैसे जेलर के मुंह पर दे मारे और भागकर जेल से बाहर आ गए. इस पर बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में उनका नागरिक अभिनंदन किया गया. अब वे चंद्रशेखर आज़ाद कहलाने लगे. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसका ज़िक्र करते हुए लिखा है-ऐसे ही क़ायदे (क़ानून) तोड़ने के लिए एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र 15 या 16 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सज़ा दी गई. उसे नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बांध दिया गया. जैसे-जैसे बेंत उस पर प़डते थे और उसकी चम़डी उधे़ड डालते थे, वह भारत माता की जय! चिल्लाता था. हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया. बाद में वही ल़डका उत्तर भारत के आतंककारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना.

ग़ौरतलब है कि 1922 में महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन बंद कर देने से चंद्रशेखर की विचारधारा में बदलाव आया और वे अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रांति के समर्थक बन गए. दरअसल, उस वक्त बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ था. चंद्रशेखर आज़ाद मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आए और क्रांतिकारी दल के सदस्य बन गए. क्रांतिकारियों का वह दल हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ के नाम से जाना जाता था. इस संगठन के ज़रिए उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में पहले 9 अगस्त, 1925 को काकोरी कांड किया और फ़रार हो गए. इसके बाद 1927 में बिस्मिल के चार प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रांतिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का गठन किया. उन्होंने भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉन्डर्स का क़त्ल करके लिया. इसके बाद उन्होंने दिल्ली पहुंच कर असेंबली बम कांड को अंजाम दिया. वे 27 फ़रवरी, 1931 को अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार-विमर्श कर रहे थे. मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक नाटबाबर ने आज़ाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया. इस दौरान पुलिस और चंद्रशेखर के बीच गोलीबारी हुई, जिससे उनकी मौत हो गई. कहा जाता है कि चंद्रशेखर ज़िंदा गिरफ्तार नहीं होना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ख़ुद पर गोली चलाकर अपनी जान ले ली. वे आज़ाद जिए और आख़िर तक पुलिस के हाथ न आए. उनकी शहादत पर महात्मा गांधी ने कहा था, चंद्रशेखर की मृत्यु से मैं आहत हूं. ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हैं. आज़ाद भारत के सपने का ज़िक्र करते हुए वे अक्सर झूम झूमकर गाते थे-
जेहि दिन होईहैं सुरजवा
अरहर के दलिया, धान के भतुआ 
खूब कचरके खैबेना 
अरे जेहि दिन होई हैं सुरजवा 

मगर देश की आज़ादी को वे अपनी आंखों से नहीं देख पाए. हालांकि चंद्रशेखर आज़ाद के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर असंख्य युवाओं ने क्रांति के मार्ग पर क़दम बढ़ाए. बहरहाल, 235 पृष्ठों की यह किताब महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद पर आधारित एक बेहतरीन दस्तावेज़ है, जिससे हमें उस वक्त की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों की भी सटीक जानकारी मिलती है. यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि समकालीन संदर्भों में यह किताब अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है. किताब की भाषा सरल है. इसमें चित्रों को भी शामिल किया गया है, जिससे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती है. अलबत्ता, देश की आज़ादी के लिए भारतीय क्रांतिकारियों के त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकता है-
ज़ालिम फलक ने लाख मिटाने की फ़िक्र की
हर दिल में अक्स रह गया, तस्वीर रह गई
हे अमर बलिदानी तुझे शत शत प्रणाम. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : चंद्रशेखर आज़ाद
लेखक : मलवेन्दर जीत सिंह वढ़ैच, राजवन्ती मान 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन

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उम्मीद


फ़िरदौस खान
अमूमन ’उम्मीद’ को लेकर ’गिलास’ की मिसाल दी जाती है, जो आधा पानी से भरा हुआ या आधा ख़ाली है... कहा जाता है कि आशावादी कहेगा कि गिलास आधा भरा हुआ है... और निराशावादी कहेगा कि गिलास आधा ख़ाली है...
अगर गिलास सचमुच पूरा ही ख़ाली हो, तो...?
तो भी आशावादी रहो और शुक्र करो कि कम से कम गिलास तो है...
अगर गिलास न हो, तो...?
तो भी आशावादी रहो और शुक्र करो कि अगर गिलास गुम हो जाता या चोरी हो जाता तो...
कम से कम गिलास के खोने के दुख से तो बच गए...

तस्वीर गूगल से साभार
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खाने में नख़रे


हम खाना खाते वक़्त हज़ार नख़रे करते हैं... हमें ये सब्ज़ी पसंद नहीं, हमें वो सब्ज़ी पसंद नहीं... दूध पीने के मामले में भी सौ नख़रे... मां से कितनी ही मिन्नतें करवाने के बाद दूध पीते हैं...  अमूमन हर आम घर की ये कहानी है...
लेकिन हम ये नहीं जानते कि इस दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें न तो पेट भरने के लिए रोटी मिलती है और न ही पीने के लिए साफ़ पानी... करोड़ों लोग हर रोज़ भूखे पेट सोते हैं... दुनिया भर में लोग भूख से मर रहे हैं...
लाखों बच्चों को दूध तो क्या, पीने के लिए पेटभर उबले चावल का पानी तक नसीब नहीं होता... और भूख से बेहाल बच्चे दम तोड़ देते हैं...
अल्लाह ने जो दिया है, उसका शुक्र अदा करके उसे ख़ुशी-ख़ुशी खा लेना चाहिए... क्या हुआ अगर एक दिन घर में हमारी पसंद की सब्ज़ी नहीं बनी है तो...
तस्वीर गूगल से साभार

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ख़ाक से उन्सियत


धूल भरी आंधियों वाला मई-जून का मौसम कब का गुज़र चुका है... ये रिमझिम बारिश की फुहारों का मौसम है... लेकिन ये दिल है कि अब भी उसी आंधियों के ख़ाक-धूल वाले मौसम में जाकर ठहर जाता है... क्यूं इतनी उन्सियत है इसे, गर्द भरे मौसम से... शायद इसलिए कि इंसान का वजूद ही ख़ाक से बना है और एक रोज़ इसे ख़ाक में ही मिल जाना है... और सबसे बढ़कर ज़िन्दगी भी तो ख़ाक हो चुकी है... फिर क्यूं न इसे ख़ाक से उन्सियत हो...
(Firdaus Diary)

तस्वीर गूगल से साभार
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फ़िल्‍मों में लोक संगीत की महक


फ़िरदौस ख़ान
भारत गांवों का देश है. गांवों में ही हमारी लोक कला और लोक संस्कृति की पैठ है. लेकिन गांवों के शहरों में तब्दील होने के साथ-साथ हमारी लोककलाएं भी लुप्त होती जा रही हैं. इन्हीं में से एक है लोक संगीत. संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है. संगीत के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर करना भी बेमानी लगता है. संगीत को इस शिखर तक पहुंचाने का श्रेय बोलती फ़िल्मों को जाता है. इससे पहले फ़िल्मों में संगीत का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन तकनीकी तौर पर रिकॉर्ड नहीं बनाए जा सकते थे. फ़िल्मों में संगीत की शुरुआत 1931 में बनी फ़िल्म आलम आरा से हुई. यह देश की पहली बोलती फ़िल्म थी. फ़िल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुए पहली बार रिकॉर्ड मशीन का इस्तेमाल किया. यह फ़िल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई. फ़िल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि पुलिस को भीड़ पर क़ाबू पाने के लिए मदद बुलानी पड़ी थी. इसका संगीत फ़िरोज़ मिस्त्री ने दिया था. इसमें आवाज़ देने के लिए उस वक़्त तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया. फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव अर्देशिर ईरानी ने किया था. गीतों के चुनाव के बाद उनके फ़िल्मांकन की समस्या रही होगी. उसकी कोई मिसाल ईरानी के सामने नहीं थी और न ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था. सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फ़िल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफ़ी मुश्किल था. इस फ़िल्म में स्वर देकर डब्ल्यूए ख़ान पहले स्वर देने वाले गायक बने. अफ़सोस की बात है कि इस फ़िल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके. फ़िल्म में कुल सात गाने थे. इनमें से एक गीत फ़क़ीर का किरदार निभाने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था. गीत के बोल थे- ’दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त है अगर देने की’. यह हिंदी सिनेमा का पहला गाना था. एक और गाने के बारे में एलवी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था. इसके बोल थे-’बलमा कहीं होंगे’.

फ़िल्म के संगीत में सिर्फ़ तीन वाद्य यंत्रों तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया था. फ़िल्म के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम मंगवाया गया. उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफ़ोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे. अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे रिकॉर्डिंग की बारीकियां सीखीं और फ़िल्म की रिकॉर्डिंग की. इस फ़िल्म के साथ ही भारतीय फ़िल्म जगत में पार्श्व गायिकी और पार्श्व संगीत का एक ऐसा दौर शुरू हुआ, जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान है. यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फ़िल्म संगीत की पहचान बना हुआ है. फ़िल्मों में ज़्यादा से ज़्यादा गाने देने की होड़ लग गई. अयूब ए ख़ान और मास्टर निसार जैसे संगीतकारों का मुक़द्दर चमक उठा. फ़िल्म ’लैला मजनूं’ में 22 गाने थे और फ़िल्म ’शकुंतला’ में 42 गाने रखे गए थे. फ़िल्म ’इंद्रसभा’ में 71 गाने थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. दरअसल, फ़िल्में संगीत से ही चलती थीं. इन फ़िल्मों की कहानी महज़ दो गीतों के बीच की जगह भरने के लिए होती थी. ’इंद्रसभा’ के संगीतकार नागरदास बहुत प्रसिद्ध हुए थे. बक़ौल सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल, आलम आरा सिर्फ़ एक सवाक फ़िल्म नहीं थी, बल्कि यह बोलने और गाने वाली फ़िल्म थी, जिसमें बोलना कम और गाना ज़्यादा था. इस फ़िल्म में कई गीत थे और इसने फ़िल्मों में गाने के ज़रिये कहानी को कहे जाने या बढ़ाए जाने की परंपरा शुरू की.

फ़िल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत संगीतकार आरसी बोराल की फ़िल्म ’धूप छांव’ से हुई. इस फ़िल्म के पार्श्व गायक केसीडे थे, जिन्होंने ’आज मेरे घर मोहन आया’ गाना गाया था. 1934 में केदारनाथ शर्मा की फ़िल्म ’देवदास’ आई, जो अपने मधुर संगीत की वजह से बहुत लोकप्रिय हुई. इसमें केएल सहगल ने पार्श्व गायन के साथ-साथ देवदास का किरदार निभाया था. फ़िल्म ’क़िस्मत’ का गाना- ’दूर हटो ऐ दुनिया वालों ! हिंदुस्तान हमारा है’, बहुत लोकप्रिय हुआ. संगीतकार नौशाद ने अपनी फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का बखू़बी इस्तेमाल किया. इसके साथ ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का बेहतरीन इस्तेमाल कर कर्णप्रिय धुनें तैयार कीं. बाद में कई संगीतकारों ने इसे आगे बढ़ाते हुए देश के विभिन्न हिस्सों के लोक संगीत पर आधारित धुनें बनाईं. नौशाद की फ़िल्म ’रतन’ के गाने ’अंखिया मिला के, जिया भरमा के चले नहीं जाना’ ने तो धूम मचा दी थी. 1945 के बाद के दौर में प्रेमकथा पर आधारित फ़िल्में बनीं. संगीत की धुनों में भी बदलाव आया. साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया जाने लगा कि पार्श्व में नायक-नायिका की आवाज़ मिलती-जुलती गायक-गायिकाओं की ली जाए. उस वक़्त के गायकों में केएल सहगल, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद और गायिकाओं में नूरजहां और सुरैया थीं. 1950 से 1960 तक का दशक न केवल शास्त्रीय संगीत पर आधारित धुनों के लिए मशहूर हुआ, बल्कि इस दौर में फ़िल्मों में ग़ज़लों और लोकगीतों का भी इस्तेमाल हुआ. नौशाद की फ़िल्म ’मुग़ले-आज़म’ ने तो अपने मधुर सगीत के लिए सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए. इसके सभी गाने शास्त्रीय संगीत पर आधारित थे.

अनिल विश्वास की फ़िल्म तराना में तलत महमूद द्वारा गाई ग़ज़ल ’सीने में सुलगते हैं अरमां, आंखों में उदासी छाई है’, राग यमन में थी. लोकगीतों का इस्तेमाल भी फ़िल्मों में एक नई शैली की शुरुआत थी. एसडी बर्मन ने पहली बार फ़िल्म ’तलाश’ में बंगाल के भटियाली लोकगीत का इस्तेमाल किया. उन्होंने फ़िल्म ’गाईड’ में यहां कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहां’ और फ़िल्म ’सुजाता’ के गीत ’सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मीत’, में लोकधुनों को अपनाया. संगीतकार ओपी नैयर ने अपनी फ़िल्मों में पंजाबी धुनों का खू़ब इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’फागुन’ में आशा भोंसले की आवाज़ में गाया गया गाना ’एक परदेसी मेरा दिल ले गया’, बहुत लोकप्रिय हुआ. 1975 में बनी फ़िल्म ’प्रतिज्ञा’ का मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’मैं जट यमला पगला दीवाना’ आज भी पसंद किया जाता है. फ़िल्म ’नया दौर’  का गाना ’ ये देश है वीर जवानों का’ भी ख़ासा मशहूर हुआ.
इस फ़िल्म की हीर ’उठ नींद से मिर्ज़ेया जाग जा’ भी बहुत मशहूर हुई. फ़िल्म ’मिलन’ के गीत ’सावन का महीना, पवन करे सोर’ से भी माटी की महक आती है. संगीतकार शंकर जयकिशन का संगीतबद्ध फ़िल्म ’तीसरी क़सम’ का गाना ’ पान खाय सैंया हमार भी’ लोकप्रिय गीत है.
 संगीत में बदलाव के इस दौर में संगीतकारों ने पश्चिमी संगीत की धुनों का भी इस्तेमाल किया. संगीतकार ओपी नैयर ने ये है ’बॉम्बे मेरी जान’, सी रामचंद्र ने ’गोरे-गोरे ओ बांके छोरे, शोला जो भड़के’ और ’ईना मीना डीका’ जैसे गानों को संगीत दिया.

किशन धवन की मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा पर आधारित फ़िल्म ’हीरा मोती’ का गीत ’कौन रंग हीरा, कौन रंग मोती’ भी प्रचलित लोकगीत है. फ़िल्म ’गोदान’ का गीत ’पुरबा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा’ भी लोक संगीत पर आधारित है.
फ़िल्म ’लावारिस’ का गीत ’मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ और फ़िल्म ’सिलसिला’ का होली का गीत ’रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे’ भी लोकगीतों से ही प्रभावित हैं. पहले दोनों ही फ़िल्मों में इन गीतों के गीतकार के तौर पर हरिवंश राय बच्चन का नाम दिया गया था, लेकिन बाद में हटा लिया गया. जेपी दत्ता की फ़िल्म ’उमराव जान’ में जावेद अख़्तर द्वारा पेश किया गया गीत ’अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजौ’ भी मशहूर लोकगीत है, जिसके रचयिता अमीर खु़सरो हैं. इसी तरह फ़िल्म ’ग़ुलामी’ का गीत ’ज़िहाले मस्ती मक़म बरंजिश’ भी फ़ारसी के गीत से प्रेरित है. फ़िल्म ’लम्हे’ का गीत ’मोरनी बागा में बोले आधी रात मा’ राजस्थानी लोक संगीत से प्रभावित है. इसके अलावा शम्मी कपूर और ओपी नैयर ने फ़िल्मों में याहू नामक नई शैली का इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’जंगली’ में शंकर जयकिशन द्वारा निर्देशित मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे याहू’ बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद आया दौर किशोर कुमार की नई शैली यूडली का. फ़िल्म ’आराधना’ और ’अमर प्रेम’ आदि के गानों में यूडली का इस्तेमाल किया गया. इन फ़िल्मों का संगीत एसडी बर्मन ने दिया. वक़्त के साथ-साथ फ़िल्म संगीत में भी बदलाव आता गया. फ़िल्मों से शास्त्रीय संगीत लुप्त होता गया और इसकी जगह पर चोली और खंडाला जैसे गाने आ गए. लेकिन कई संगीतकारों ने अच्छी धुनें तैयार कीं. फिल्म ’लेकिन’, ’रुदाली’, ’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ’दिल तो पागल है’, ’दिल से’, ’साजन’ और ’कुछ-कुछ होता है’ ’फ़ना’ आदि फ़िल्मों का संगीत सुमधुर और कर्णप्रिय रहा. फ़िल्म ’दिल्ली छह’ के गीत ’सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल’ छत्तीसगढ़ का लोकगीत है. इस लोकगीत को सबसे पहले 1972 में रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था. गंगाराम शिवारे के लिखे इस गीत को भुलवाराम यादव ने अपनी आवाज़ दी थी. फ़िल्म ’पीपली लाइव’ का महंगाई डायन खाय जात है, भी लोक संगीत पर आधारित है. अनुराग कश्यप की फ़िल्म ’गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ का लोकगीत ’तार बिजली से पतले हमारे पिया’ बिहार और झारखंड में विवाह के मौक़े पर गाया जाता है. इस गीत को गाने वाली वाली बिहार की जानी मानी लोक गायिका पदमश्री शारदा सिन्हा का कहना है कि फ़िल्मों से लोक संगीत को बड़ा मंच मिलता है और जिन फ़िल्मों में मूल लोक संगीत को अपनाया गया है, उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कामयाब रही हैं. सोहेल ख़ान की फ़िल्म ’मैंने प्यार किया’ के गीत ’कहे तोसे सजना’ के ज़रिये हिंदी सिनेमा में प्रवेश करने वाली लोक गायिका शारदा सिन्हा के गीतों में लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का सम्मिश्रण है. उनका गाया फ़िल्म ’हम आपके हैं कौन’ का गीत ’बाबुल जो तुमने सिखाया’ भी ख़ासा लोकप्रिय हुआ था. मौजूदा संगीत का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि नए लोग प्रतिभावान हैं, लेकिन उनमें से ज़्यादातर की गायिकी पर बाज़ार हावी है. नए गीतों के बोल उन्हें अच्छे नहीं लगते और लोक संगीत के नाम पर भी रीमिक्स परोसा जा रहा है. उनमें शुद्धता का अभाव है. हालांकि स्थानीय स्तर पर लोक संगीत की कई अल्बम आए दिन रिलीज़ होती रहती हैं. लोकगायकों की अल्बमों में ठेठ लोक संगीत की महक बरक़रार रहती है, लेकिन नए गायकों की अल्बमों में लोक संगीत की शुद्धता की कमी खलती है.

गांवों और क़स्बों में आज भी लोक संगीत का बड़ा महत्व है. मांगलिक कार्यों में महिलाएं आंचलिक गीत गाती हैं. लोक संगीत के बिना कोई भी उत्सव पूरा नहीं हो पाता है. आज भी सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जनसंपर्क विभाग लोक गायकों की मदद लेता है. मगर शहरों में लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गीत लेते जा रहे हैं. लेकिन यह कहना ग़लत न होगा कि फ़िल्में लोक संगीत के प्रचार-प्रसार का बेहतर ज़रिया साबित हो सकती हैं. इन गीतों में ही हमारी संस्कृति की आत्मा बसी है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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हज़रत अबुल हसन ख़रक़ानी


फ़िरदौस ख़ान
अबुल हसन ख़रक़ानी प्रसिद्ध सूफ़ी संत हैं. उनका असली नाम अबुल हसन हैं, मगर ख़रक़ान में जन्म लेने की वजह से वे अबुल हसन ख़रक़ानी के नाम से विख्यात हुए. सुप्रसिद्ध ग्रंथकार हज़रत शेख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार के मुताबिक़ एक बार सत्संग में अबुल हसन ख़रक़ानी ने बताया कि उन्हें उस वक़्त की बातें भी याद हैं, जब वे अपनी मां के गर्भ में चार महीने के थे.

अबुल हसन ख़रक़ानी एक चमत्कारी संत थे, लेकिन उन्होंने कभी लोगों को प्रभावित करने के लिए अपनी दैवीय शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया. वे कहते हैं कि अल्लाह अपने यश के लिए चमत्कार दिखाने वालों से चमत्कारी शक्तियां वापस ले लेता है. उन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग केवल लोककल्याण के लिए किया. एक बार उनके घर कुछ मुसाफ़िर आ गए, जो बहुत भूखे थे. उनकी पत्नी ने कहा कि घर में दो-चार ही रोटियां हैं, जो इतने मेहमानों के लिए बहुत कम पड़ेंगी. इस पर अबुल हसन ख़रक़ानी ने कहा कि सारी रोटियों को साफ़ कपड़े से ढककर मेहमानों के सामने रख दो. उनकी पत्नी ने ऐसा ही किया. मेहमानों ने भरपेट रोटियां खाईं, मगर वे कम न पड़ीं. मेहमान तृप्त होकर उठ गए, तो उनकी पत्नी ने कपड़ा हटाकर देखा, तो वहां एक भी रोटी नहीं थी. इस पर अबुल हसन ख़रक़ानी ने कहा कि अगर और भी मेहमान आ जाते, तो वे भी भरपेट भोजन करके ही उठते.

वे बाहरी दिखावे में विश्वास न रखकर कर्म में यकीन करते थे. वे कहते हैं कि जौ और नमक की रोटी खाने या टाट के वस्त्र पहन लेने से कोई सूफ़ी नहीं हो जाता. अगर ऐसा होता, तो ऊन वाले और जौ खाने वाले जानवर भी सूफ़ी कहलाते. अबुल हसन ख़रक़ानी कहते हैं कि सूफ़ी वह है जिसके दिल में सच्चाई और अमल में निष्ठा हो. वे शिष्य नहीं बनाते थे, क्योंकि उन्होंने भी स्वयं किसी गुरु से दीक्षा नहीं ली थी. वे कहते थे कि उनके लिए अल्लाह ही सब कुछ है. मगर इसके साथ ही उनका यह भी कहना था कि सांसारिक लोग अल्लाह के इतने करीब नहीं होते, जितने संत-फ़कीर होते हैं. इसलिए लोगों को संतों के प्रवचनों का लाभ उठाना चाहिए, क्योंकि संतों का तो बस एक ही काम होता है अल्लाह की इबादत और लोककल्याण के लिए सत्संग करना.

एक बार किसी क़ाफ़िले को ख़तरनाक रास्ते से यात्रा करनी थी. क़ाफ़िले में शामिल लोगों ने अबुल हसन ख़रक़ानी से आग्रह किया कि वे उन्हें कोई ऐसी दुआ बता दें, जिससे वे यात्रा की मुसीबतों से सुरक्षित रहें. इस पर उन्होंने कहा कि जब भी तुम पर कोई मुसीबत आए, तो तुम मुझे याद कर लेना. मगर लोगों ने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया. काफ़ी दूरी तय करने के बाद एक जगह डाकुओं ने क़ाफ़िले पर धावा बोल दिया. एक व्यक्ति जिसके पास बहुत-सा धन और क़ीमती सामान था, उसने अबुल हसन ख़रक़ानी को याद किया. जब डाकू क़ाफ़िले को लूटकर चले गए, तो क़ाफ़िले वालों ने देखा कि उनका तो सब सामान लुट चुका है, लेकिन उस व्यक्ति का सारा सामान सुरक्षित है. लोगों ने उससे इसकी वजह पूछी, तो उस व्यक्ति ने बताया कि उसने अबुल हसन ख़रक़ानी को याद कर उनसे सहायता की विनती की थी. इस वाक़िये के कुछ वक़्त बाद जब क़ाफ़िला वापस ख़रक़ान आया, तो लोगों ने अबुल हसन ख़रक़ानी से कहा कि हम अल्लाह को याद करते रहे, मगर हम लुट गए और उस व्यक्ति ने आपका नाम लिया, तो वह बच गया. इस पर अबुल हसन ख़रक़ानी ने कहा कि तुम केवल ज़ुबानी तौर पर अल्लाह को याद करते हो, जबकि संत सच्चे दिल से अल्लाह को याद करते हैं. अगर तुमने मेरा नाम लिया होता, तो मैं तुम्हारे लिए अल्लाह से दुआ करता.

एक बार वे अपने बाग की खुदाई कर रहे थे, तो वहां से चांदी निकली. उन्होंने उस जगह को बंद करके दूसरी जगह से खुदाई शुरू की, तो वहां से सोना निकला. फिर तीसरी और चौथी जगह से खुदाई शुरू की, तो वहां से भी हीरे-जवाहरात निकले, लेकिन उन्होंने किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाया और फ़रमाया कि अबुल हसन इन चीज़ों पर मोहित नहीं हो सकता. ये तो क्या अगर दोनों जहां भी मिल जाएं, तो भी अल्लाह से मुंह नहीं मोड़ सकता. हल चलाते में जब नमाज़ का वक़्त आ जाता, तो वे बैलों को छोड़कर नमाज़ अदा करने चले जाते. जब वे वापस आते तो ज़मीन तैयार मिलती.

वे लोगों को अपने कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करने की सीख भी देते थे. अबुल हसन ख़रक़ानी और उनके भाई बारी-बारी से जागकर अपनी मां की सेवा करते थे. एक रात उनके भाई ने कहा कि आज रात भी तुम ही मां की सेवा कर लो, क्योंकि मैं अल्लाह की इबादत करना चाहता हूं. उन्होंने अपने भाई की बात मान ली. जब उनके भाई इबादत में लीन थे, तब उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि ''अल्लाह ने तेरे भाई की मग़फ़िरत की और उसी के ज़रिये से तेरी भी मग़फ़िरत कर दी.'' यह सुनकर उनके भाई को बड़ी हैरानी हुई और उन्होंने कहा कि मैंने अल्लाह की इबादत की, इसलिए इसका पहला हकदार तो मैं ही था. तभी उसे ग़ैबी आवाज़ सुनाई दी कि ''तू अल्लाह की इबादत करता है, जिसकी उसे ज़रूरत नहीं है. अबुल हसन ख़रक़ानी अपनी मां की सेवा कर रहा है, क्योंकि बीमार ज़ईफ़ मां को इसकी बेहद ज़रूरत है.'' यानी, अपने माता-पिता और दीन-दुखियों की सेवा करना भी इबादत का ही एक रूप है. वे कहते थे कि मुसलमान के लिए हर जगह मस्जिद है, हर दिन जुमा है और हर महीना रमज़ान है. इसलिए बंदा जहां भी रहे अल्लाह की इबादत में मशग़ूल रहे. एक रोज़ उन्होंने ग़ैबी आवाज़ सुनी कि ''ऐ अबुल हसन जो लोग तेरी मस्जिद में दाख़िल हो जाएंगे उन पर जहन्नुम की आग हराम हो जाएगी और जो लोग तेरी मस्जिद में दो रकअत नमाज़ अदा कर लेंगे उनका हश्र इबादत करने वाले बंदों के साथ होगा.''

अपनी वसीयत में उन्होंने ज़मीन से तीस गज़ नीचे दफ़न होने की ख्वाहिश ज़ाहिर की थी. अबुल हसन ख़रक़ानी यह भी कहते थे कि किसी भी समाज को शत्रु से उतनी हानि नहीं पहुंचती, जितनी कि लालची विद्वानों और गलत नेतृत्व से होती है. इसलिए यह ज़रूरी है कि लोग यह समझें कि हक़ीक़त में उनके लिए क्या सही है और क्या ग़लत.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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अख़बारों से ग़ायब होता साहित्य


फ़िरदौस ख़ान
साहित्य समाज का आईना होता है. जिस समाज में जो घटता है, वही उस समाज के साहित्य में दिखलाई देता है. साहित्य के ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद द नहीं हुआ है. साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है. जिस समाज का साहित्य जितना ज़्यादा उत्कृष्ट होगा, वह समाज उतना ही ज़्यादा सुसंस्कृत और समृद्ध होगा. प्राचीन भारत की गौरवमयी संस्कृति का पता इसके साहित्य से ही चलता है. प्राचीन काल में भी यहां के लोग सुसंस्कृत और शिक्षित थे, तभी उस समय वेद-पुराणों जैसे महान ग्रंथों की रचना हो सकी. महर्षि वाल्मीकि की रामायण और श्रीमद भागवत गीता भी इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. हिंदुस्तान में संस्कृत के साथ हिंदी और स्थानीय भाषाओं का भी बेहतरीन साहित्य मौजूद है. एक ज़माने में साहित्यकारों की रचनाएं अख़रों में ख़ूब प्रकाशित हुआ करती थीं. कई प्रसिद्ध साहित्यकार अख़बारों से सीधे रूप से जु़डे हुए थे. साहित्य पेज अख़बारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, लेकिन बदलते वक़्त के साथ-साथ अ़खबारों और पत्रिकाओं से साहित्य ग़ायब होने लगा. इसकी एक बड़ी वजह अख़बारों में ग़ैर साहित्यिक लोगों का वर्चस्व भी रहा. उन्होंने साहित्य की बजाय सियासी विषयों और गॉसिप को ज़्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया. अख़बारों और पत्रिकाओं में फ़िल्मी, टीवी गपशप और नायिकाओं की शरीर दिखाऊ तस्वीरें प्रमुखता से छपने लगीं.

अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर मशहूर फ़िल्म गीतकार जावेद अख्तर कहते हैं कि यह एक बहुत ही परेशानी और सोच की बात है कि हमारे समाज में ज़ुबान सिकु़ड़ रही है, सिमट रही है. हमारे यहां तालीम का जो निज़ाम है, उसमें साहित्य को, कविता को वह अहमियत हासिल नहीं है, जो होनी चाहिए थी. ऐसा लगता है कि इससे क्या होगा. वही चीज़ें काम की हैं, जिससे आगे चलकर नौकरी मिल सके, आदमी पैसा कमा सके. अब कोई संस्कृति और साहित्य से पैसा थोड़े ही कमा सकता है. पैसा कमाना बहुत ज़रूरी चीज़ है. कौन पैसा कमा रहा है और ख़र्च कैसे हो रहा है, यह भी बहुत ज़रूरी चीज़ है. यह फ़ैसला इंसान का मज़हब और तहज़ीब करते हैं कि वह जो पाएगा, उसे ख़र्च कैसे करेगा. जब तक आम लोगों ख़ासकर नई नस्ल को साहित्य केबारे में, कविता के बारे में नहीं मालूम होगा, तब तक ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो ही नहीं सकती. अगर आम इंसान को इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा तो फिर वह अख़बारों से भी ग़ायब होगा, क्योंकि अख़बार तो आम लोगों के लिए होते हैं. मैं समझता हूं कि हमें अपने अख़बारों पर नाराज़ होने और शिकायतें करने की बजाय अपनी शैक्षिक व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. हमें साहित्य को स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक महत्व देना होगा. अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी साहित्य को जगह देनी होगी. जब हम ख़ुद साहित्य की अहमियत समझेंगे तो वह किताबों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में भी झलकेगा. देखिए अख़बार तो बहुत हैं, लेकिन कम अख़बार हैं, जिनमें हिम्मत है सच बोलने की. जो चंद अख़बार हैं उर्दू में, हिंदी में, अंग्रेज़ी में, उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है.

वरिष्ठ साहित्यकार असग़र वज़ाहत का कहना है कि अख़बार समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं. मौजूदा दौर में अख़बारों से साहित्य ग़ायब हो गया है. इसे दोबारा वापस लाया जाना चाहिए, क्योंकि आज इसकी सख्त ज़रूरत है. वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी का मानना था कि अख़बारों से साहित्य ग़ायब होने के लिए सिर्फ़ अख़बार वाले ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. पहले जो पढ़ने-लिखने जाते थे, वही लोग अख़बारों के भी पाठक होते थे. पहले जो व्यक्ति पाठक रहा होगा, उसने शेक्सपियर भी पढ़ा था. उसने रवींद्रनाथ टैगोर को भी पढ़ा था. उसने प्रेमचंद, शरतचंद्र, मार्क्स और टॉलस्टाय को भी पढ़ा था. लेकिन सरकार के साक्षरता अभियान की वजह से समाज में साक्षरता तो आ गई, लेकिन पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हो गई. नव साक्षरों की तरह ही नव पत्रकारों को भी साहित्य की ज़्यादा जानकारी नहीं है. पहले भी साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों को अख़बारों से पर्याप्त साहित्य पढ़ने को कहां मिलता था. वे साहित्य पढ़ने की शुरुआत तो अख़बारों से करते थे, लेकिन साहित्यिक किताबों से ही उनकी पढ़ने की ललक पूरी होती थी. अब लोग अख़बार पढ़ने की बजाय टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में अख़बारों से साहित्य ग़ायब होगा ही.

माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी डॉ. सौरभ मालवीय कहते हैं कि वर्तमान में मीडिया समाज के लिए मज़बूत कड़ी साबित हो रहा है. अख़बारों की प्रासंगिकता हमेशा से रही है और आगे भी रहेगी. मीडिया में बदलाव युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से अख़बारों में गिरावट देखने को मिल रही है. इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में अ़खबारों से साहित्य लोप हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में अ़खबारों की महती भूमिका रही है. मगर आज अ़खबारों ने ही खुद को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है. आज ज़रूरत है कि अख़बारों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएं. युवा लेखक अमित शर्मा का कहना है कि राजेंद्र माथुर अख़बार को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे. अब न उस तरह के संपादक रहे, न अ़खबारों में साहित्य के लिए स्थान. साहित्य महज़ साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्‌स में सिमट गया है. अब वह भी ब्रांडिंग साहित्य की भेंट चढ़ रहे हैं. पहला पेज रोचक कहानी और विज्ञापन में खप जाता है. अंतिम पेज को भी विज्ञापन और रोचक जानकारियां सरीखे कॉलम ले डूबते हैं. भीतर के पेज 2-3 में साप्ताहिक राशिफल आदि स्तंभ देने के बाद कहानी-कविता के नाम कुछ ही हिस्सा आ पाता है. ऐसे में साहित्य सिर्फ़ कहानी-कविता को मानने की भूल भी हो जाती है. निबंध, रिपोर्ताज, नाटक जैसी अन्य विधाएं तो हाशिये पर ही फेंक दी गई हैं.

इस सबके बीच अच्छी बात यह है कि आज भी चंद अख़बार साहित्य को अपने में संजोए हुए हैं. वक़्त बदलता रहता है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में अख़बारों में फिर से साहित्य पढ़ने को मिलने लगे. कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है.
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हज़रत दाऊद ताई

फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत दाऊद ताई ने अपनी सारी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत में गुज़ारी. वे भक्ति, वैराग्य और त्याग का प्रतीक थे. हर व्यक्ति की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे, लेकिन उनके जीवन में एक मोड़ ऐसा आया कि जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. एक बार एक फ़क़ीर अल्लाह की मुहब्बत से सराबोर एक गीत गा रहा था-
कौन-सा तेरा चेहरा ख़ाक में नहीं मिले
और कौन-सी तेरी आंख ज़मीन पर नहीं बही
यह शेअर उनके दिल को छू गया. उन्होंने आत्ममंथन किया और फिर संसार और सांसारिक जीवन उन्हें व्यर्थ लगने लगा. बेख़ुदी की हालत में वह हज़रत इमाम अबु हनीफ़ा की ख़िदमत में हाज़िर हुए और पूरा वाक़िया उनसे बयान करके कहा कि मेरा दिल अब दुनिया भर गया है. आप कोई रास्ता बताएं कि दिल को कुछ सुकून हासिल हो. यह सुनकर इमाम साहब ने फरमाया कि एकांत में चले जाओ. उन्होंने ऐसा ही किया. कुछ वक़्त बाद इमाम साहब ने फ़रमाया कि अब यह बेहतर है कि लोगों से मिलो और उनकी बातों पर सब्र करो. इसके बाद वे संतों की संगत में रहने लगे. इसी दौरान प्रसिद्ध संत हबीब राई से उनकी मुलाक़ात हुई. संत से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे दीक्षा ली और उनके शिष्य बन गए.

उन्हें विरासत में बीस दीनार मिले थे. वे उसी में ख़ुश रहते थे. जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या संतों को धन का संग्रह करना शोभा देता है, तो उन्होंने कहा कि इन दीनारों की वजह उन्हें रोज़ी-रोटी के लिए कोई काम नहीं करना पड़ता और वे निश्चिंत होकर अल्लाह की इबादत कर सकते हैं. इसलिए ज़िन्दगीभर के लिए यह रक़म उनके लिए काफ़ी है. उन्हें अल्लाह की इबादत के अलावा किसी और चीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी. दिन-रात वे इबादत में ही लीन रहते थे. इबादत की वजह से उन्होंने निकाह भी नहीं किया. जब उनके परिचित उनसे शादी की बात करते, तो वे कहते थे कि जब उनके पास अल्लाह के अलावा किसी और के लिए ज़रा भी वक़्त नहीं, तो फिर शादी करके किसी लड़की की ज़िन्दगी क्यों बर्बाद करूं. किसी ने पूछा दाढ़ी में कंघी क्यों नहीं करते, तो उन्होंने फ़रमाया कि अल्लाह से फ़ुर्सत मिले, तो करूं भी. उन्हें भोजन करने में वक़्त बर्बाद करना भी तकलीफ़देह महसूस होता था. इसलिए वे तरल भोजन ही करते थे. अगर किसी दिन तरल भोजन न मिलता, तो भोजन में पानी डालकर उसे पी लेते थे, ताकि अपना ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अल्लाह की इबादत में ही बिता सकें.

वे जिस मकान में रहते थे, वह बहुत पुराना और जर्जर हालत में था. जब उसका एक हिस्सा गिर गया, तो वे दूसरे हिस्से में रहने लगे और जब वह भी ढह गया, तो दरवाज़े के पास आकर रहने लगे. जब मोहल्ले वालों ने कहा कि वे मकान की मरम्मत करा लें, तो उन्होंने कहा कि उन्हें अल्लाह की इबादत से इतना वक़्त ही नहीं मिलता कि वे घर की तरफ़ ध्यान दें. जिस प्रकार भारतीय दर्शन में इंद्रियों पर नियंत्रण को जीवन के लिए महत्वपूर्ण बताया गया है, उसी प्रकार संत दाऊद ताई ने भी इंद्रियों पर नियंत्रण को सुखी जीवन का आधार क़रार दिया है. उनका कहना है कि इंद्रियों के सुख के जाल में फंसकर मनुष्य अच्छे-बुरे की पहचान भूल जाता है. वे ख़ुद भी इससे दूर रहते थे. एक बार की बात है कि रमज़ान के दिनों में वे धूप में बैठे अल्लाह की इबादत कर रहे थे. उनकी मां ने जब देखा कि रोज़े में भी वे चिलचिलाती धूप में बैठे हैं, तो उन्होंने दाऊद ताई से छांव में आ जाने के लिए कहा. इस पर दाऊद ताई ने कहा कि जब वे अल्लाह की इबादत के लिए बैठे थे, तब यहां छांव ही थी और अब यहां धूप आ गई, तो फिर वे केवल इंद्रियों के सुख के लिए छांव में क्यों आएं.

वे कहते थे कि मनुष्य को सीमित साधनों में ही संतुष्ट रहना चाहिए, क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है. जब व्यक्ति की एक इच्छा पूरी हो जाती है, तो वे कोई और इच्छा पूरी करना चाहता है. एक के बाद एक इसी तरह इच्छाओं की पूर्ति के प्रयासों में वे अपना सारा जीवन बर्बाद कर लेता है. अगर मनुष्य अपनी इच्छाओं को सीमित रखे, तो वे ज़्यादा सुखी रह सकता है. ऐसा व्यक्ति समाज के लिए भी बेहद उपयोगी होता है. जब पैतृक संपत्ति में मिले उनके दीनार ख़त्म हो गए, तो उन्होंने एक ईमानदार व्यक्ति को अपना मकान बेच दिया, ताकि उन्हें हलाल की कमाई ही मिले. धीरे-धीरे उनकी यह रक़म भी ख़त्म होने लगी. हारून रशीद ने उन्हें कुछ अशर्फ़ियां भेंट करनी चाहीं, तो उन्होंने उन्हें लेने से साफ़ इंकार कर दिया. जब हारून रशीद ने उनसे आग्रह किया कि वे उनसे कम-से-कम एक अशर्फ़ी तो भेंट स्वरूप स्वीकार कर लें, तो उन्होंने कहा कि उनके पास जो रक़म है, वे उनके लिए काफ़ी है. उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अल्लाह से विनती की है कि जब उनके पास मौजूद यह राशि भी ख़त्म हो जाए, तो वह उन्हें इस संसार से बुला ले, ताकि उन्हें किसी का अहसान न लेना पड़े. अल्लाह ने अपने बंदे की दुआ को क़ुबूल किया. जब उनकी सारी रक़म ख़त्म हो गई, तो वे इस नश्वर संसार को छोड़कर सदा के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह के पास चले गए.

किसी ने संत दाऊद ताई को ख़्वाब में उड़ते हुए यह कहते सुना कि आज मुझे क़ैद से आज़ादी मिल गई है. सुबह वह व्यक्ति ख़्वाब की ताबीर पूछने के लिए दाऊद ताई के घर पास पहुंचा, तो उसे वहां उनके इंतक़ाल की ख़बर मिली. वह व्यक्ति अपने ख़्वाब की ताबीर समझ गया. रिवायत है कि इंतक़ाल के वक़्त आसमान से यह आवाज़ आई कि दाऊद ताई अपनी मुराद को पहुंच गया और अल्लाह तअला भी उनसे ख़ुश है. उन्होंने वसीयत की थी कि उन्हें दीवार के नीचे दफ़न किया जाए. उनकी इस वसीयत को पूरा कर दिया गया.

वे हमेशा दुखी रहते थे और फ़रमाया करते थे कि जिसे हर पल मुसीबतों का सामना करना हो, उसे ख़ुशी किस तरह हासिल हो सकती है. संत दाऊद ताई लोगों को परनिंदा से दूर रहने की सीख देते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अपने अंदर झांककर देखना चाहिए. उसे आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि कहीं उसकी वजह से किसी दूसरे को दुख तो नहीं पहुंचा है. ऐसा करने से व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है. एक बार संत दाऊद ताई से कोई ग़लती हो गई. अपनी ग़लती को याद कर वे अकसर रोने लगते. जब कोई उनसे रोने का कारण पूछता, तो वे कहते कि वे अपनी ग़लती को कभी भूल नहीं पाते. इसलिए रोने लगते हैं. वे कहते थे कि इंसान को अपनी ग़लतियों से सबक़ हासिल करना चाहिए और गुनाह के लिए अल्लाह से माफ़ी मांगनी चाहिए. बेशक, संत दाऊद ताई का जीवन लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है.

(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)
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हज़रत ज़ू-उल-नून मिस्री

फ़िरदौस ख़ान
प्रसिध्द सूफ़ी संत ज़ू-उल-नून मिस्र के रहने वाले थे. इसलिए उनका नाम ज़ू-उल-नून मिस्री पड़ा. लोग उन्हें नास्तिक समझते थे. मगर वे अल्लाह के सच्चे बंदे थे. उनका जीवन त्याग, भक्ति और सद्भावना का प्रतीक है. एक बार की बात है कि वे किश्ती में यात्रा कर रहे थे. इसी दौरान एक व्यापारी का क़ीमती मोती खो गया. किश्ती में सवार लोगों ने ज़ू-उल-नून मिस्री पर मोती की चोरी का संदेह जताते हुए उन्हें पीटना शुरू कर दिया. ज़ू-उल-नून मिस्री ने अल्लाह से दुआ की कि वह उनकी मदद करे, क्योंकि वे बेगुनाह हैं. तभी लोगों ने देखा कि हज़ारों मछलियां मुंह में एक-एक मोती लेकर सामने आ गईं. उन्होंने एक मोती लेकर व्यापारी को दे दिया. व्यापारी और उन्हें मारने वाले लोगों ने उनसे माफ़ी मांगी. इस वाक़िये के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई.

इस्लाम में ग़ैर मुस्लिमों के साथ अच्छा व्यवहार करने को कहा गया है. इस्लाम में यह भी कहा गया है कि जो मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, अल्लाह उनको पसंद नहीं करता. एक बार ज़ू-उल-नून मिस्री को भी एक यहूदी पर इसी तरह की एक टिप्पणी करने की वजह से अल्लाह से फटकार खानी पड़ी थी. हुआ यूं कि ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि बर्फ़ पड़ने के मौसम में एक यहूदी बर्फ़ की चादर के ऊपर पक्षियों के लिए दाने डाल रहा है. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने पूछा कि वह क्या कर रहा है? यहूदी ने जवाब दिया कि वह ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पक्षियों को दाने डाल रहा है, क्योंकि बर्फ़ के कारण पक्षियों को दाने नहीं मिले होंगे और वे भूखे होंगे. मुसलमान होने के अभिमान में चूर ज़ू-उल-नून मिस्री ने कहा कि अल्लाह ग़ैर मुसलमानों के दाने डालने से ख़ुश नहीं होता. यहूदी ने जवाब दिया कि मेरा ईश्वर मुझे देख रहा है. बस, मेरे लिए यही काफ़ी है. इसके बाद हज के दिनों में ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि यहूदी बड़े उत्साह के साथ काबे की परिक्रमा कर रहा है. यह देखकर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने अल्लाह से कहा कि उसने एक ग़ैर मुस्लिम को छोटे-से काम का इतना बड़ा तोहफ़ा क्यों दिया है. इस पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि अल्लाह के लिए सभी मनुष्य समान हैं. यह सुनकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने अल्लाह और उस यहूदी से माफ़ी मांगी.

एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री एक जंगल से गुज़र रहे थे. उन्होंने देखा कि एक पेड़ से एक अंधा पक्षी उतरा. ज़ू-उल-नून मिस्री सोच ही रहे थे कि यह बेचारा किस तरह अपना पेट भरता होगा. इतने में उस पक्षी ने ज़मीन को खोदना शुरू किया. ज़मीन में से दो प्यालियां निकलीं. सोने की प्याली में तिल थे और चांदी की प्याली में गुलाब जल था. उसने तिल खाए और गुलाब जल पिया. पेट भरने के बाद वह फिर से अपने पेड़ पर जाकर बैठ गया. यह माजरा देखकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अल्लाह पर दृढ़ विश्वास हो गया. उन्होंने सोचा कि जिसे अल्लाह पर यक़ीन है, उसे किसी भी चीज़ के लिए फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है. वहां से वह जंगल में घूमने की गर्ज़ से आगे बढ़ गए, जहां उनके कुछ पुराने दोस्त मिल गए. घूमते-घूमते उन लोगों को जंगल में एक ख़ज़ाना मिला, जिसके ऊपर एक तख़्ती लगी थी. इस तख़्ती पर अल्लाह का नाम लिखा था. उनके दोस्तों ने ख़ज़ाना आपस में बांट लिया, लेकिन ज़ू-उल-नून मिस्री ने ख़ज़ाने की तरफ़ देखा तक नहीं और अल्लाह का नाम लिखी तख़्ती उठा ली. उन्होंने अदब से अल्लाह के नाम को चूमा, सिर और आंखों से लगाया. उसी रात उन्हें ख़्वाब में बशारत हुई कि- ''ऐ ज़ू-उल-नून मिस्री तूने अल्लाह के नाम की इज़्ज़त की. दौलत के बजाय अल्लाह के नाम को पसंद किया. इसके बदल में अल्लाह ने तेरे लिए इल्म और हिकमत के दरवाज़े खोल दिए हैं.''

ज़ू-उल-नून मिस्री लोगों को सादगी से जीवन जीने का उपदेश देते थे. वे कहते थे कि व्यक्ति को मेहनत की कमाई से जो भी मिले, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए. एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री के एक शिष्य को विरासत में एक लाख दीनार मिले, तो उसने उन्हें ख़र्च करने का फ़ैसला किया. मगर ज़ू-उल-नून मिस्री ने उसके बालिग़ होने तक उसे ख़र्च करने से मना कर दिया. बालिग़ होने पर शिष्य ने सभी दीनार ज़रूरतमंदों में बांट दिए. एक दिन ज़ू-उल-नून मिस्री को पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो शिष्य को दीनार बांटने का अफ़सोस हुआ. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने मिट्टी की तीन गोलियां बनाकर मुट्ठी में बंद कीं. मुट्ठी खोली, तो वे बेशक़ीमती रत्न बन चुकी थीं. उन्होंने रत्नों को पानी में फेंक दिया और अपने शिष्य को नसीहत की कि फ़क़ीरों को दौलत से दूर ही रहना चाहिए.
लोग उन्हें धर्म-भ्रष्ट समझते थे. उन्होंने ख़लीफ़ा से ज़ू-उल-नून मिस्री की शिकायत की. ख़लीफ़ा ने उन्हें बुलाया, तो सिपाहियों ने उनके हाथों और पैरों में लोहे की बेड़ियां डालकर उन्हें दरबार में पेश किया. ख़लीफ़ा ने उन्हें कारागार में डलवा दिया. वे चालीस दिन तक क़ैद रहे. उनकी बहन प्रतिदिन उनके लिए रोटी लेकर आती थी. जब वे कारागार से आज़ाद हुए, तो उनकी बहन ने देखा कि सारी रोटियां वैसे ही रखी हुई हैं. ज़ू-उल-नून मिस्री ने एक भी रोटी नहीं खाई. बहन ने वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि दरोग़ा दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति है. वे उसके हाथ से छूकर आई रोटियां भला कैसे खा सकते हैं? क़ैद से आज़ाद होकर जब वे ख़लीफ़ा के पास गए, तो उसने कई सवाल किए. उनके वाजिब जवाब सुनकर ख़लीफ़ा बहुत ख़ुश हुआ और उसने ज़ू-उल-नून मिस्री को सम्मान के साथ वापस मिस्र भेज दिया.

मिस्र के लोग उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे. इसके बावजूद ज़ू-उल-नून मिस्री के मन में किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी. वे कहते थे कि वे तो हमेशा अल्लाह में की मुहब्बत और उसकी इबादत में लीन रहते हैं. इसलिए किसी और के बारे में कुछ भी सोचने का उनके पास ज़रा भी समय नहीं है. कहते हैं, जब उनका इंतक़ाल हुआ और लोगों ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ी, तो उनकी एक अंगुली ऊपर को उठ गई, जिस तरह नमाज़ पढ़ने के दौरा न एक आयत पढ़ने पर अंगुली उठाते हैं. लोगों ने जब यह देखा, तो उन्हें बहुत हैरानी हुई. उन्होंने अंगुली को सीधा करने की बहुत कोशिश की, मगर वह सीधी नहीं हुई. जब मिस्र वालों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्हें बहुत दुख पहुंचा, क्योंकि उन्होंने ज़िन्दगीभर ज़ू-उल-नून मिस्री के साथ दुशमनों जैसा बर्व्यताव किया. उनकी उठी हुई अंगुली इस बात का सबूत थी कि उन्हें अल्लाह के सिवा किसी और से कोई भी वास्ता नहीं था. इसलिए उन्होंने मिस्र के लोगों के प्रति कभी अपने मन में कोई द्वेष-भाव नहीं रखा.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)
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ईद का चांद देखकर...तुमसे मिलने की दुआ मांगी थी...


ये ईद का चांद भी माज़ी के जज़ीरे से कितनी यादों को बुला लाता है...
नज़्म
ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
कितने अश्क
मेरी आंखों में
भर आए थे...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
कितनी यादें मेरे तसव्वुर में
उभर आईं थीं...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
कितने ख़्वाब
इन्द्रधनुषी रंगों से
झिलमिला उठे थे...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
मेरी हथेलियों की हिना
ख़ुशी से
चहक उठी थी...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
शब की तन्हाई
सुर्ख़ गुलाबों-सी
महक उठी थी...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर गूगल से साभार
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बारिश...


बारिश कब की थम चुकी है... आसमान में अब भी काली घटायें छाई हुई हैं... और क्यारियों में उगे सुर्ख़-सफ़ेद गुलाबों की पत्तियों पर बारिश की बूंदें अब भी इठला रही हैं...
एक अरसे बाद अपनी डायरी देखी...

...एक नज़्म...
चंद यादें
ज़िंदगी के आंगन में
खिले सुर्ख़ गुलाबों की तरह
होती हैं
जिनकी भीनी-भीनी ख़ुश्बू
मुस्तक़्बिल तक को महका देती हैं...
-फ़िरदौस ख़ान

हमारी डायरी से
रात से बारिश हो रही है... बारिश में भीगना चाहते हैं... लेकिन तबीयत इजाज़त नहीं दे रही है... आंगन में बरसते पानी को देखकर ही दिल ख़ुश कर लिया... 
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काश ! कोई हातिम ताई मिल जाता...


फ़िरदौस ख़ान
अकसर अच्छा काम करने पर भी ताने सुनने को मिलते हैं... मसलन हातिम ताई बनने की क्या ज़रूरत थी, इतना सख़ी होना भी अच्छा नहीं होता, व़गैरह-वग़ैरह...

कुछ माह पहले की बात है. हम बस में सफ़र कर रहे थे. पीरागढ़ी से एक बुज़ुर्ग औरत बस में चढ़ी. बस पूरी खचाखच भरी हुई थी. वह हमारी सीट के पास आकर खड़ी हो गई. हमने उससे पूछा कि कहां जाना है, तो उसने बताया कि हमने उस औरत को अपनी सीट दे दी और ख़ुद वहीं खड़े हो गए.
उस औरत ने पूछा कि तुम्हें उतरना है.
हमने कहा- नहीं.
फिर बोली- कहां जा रही हो?
हमने कहा- रोहतक.
उसने कहा कि रोहतक तो बहुत दूर है, फिर अपनी सीट क्यों दे दी, तुम बैठ जाओ.
हमने बैठने से इंकार कर दिया और कहा- आपको देखकर हमें अपनी अम्मी याद आ गईं. अगर उन्हें भी आपकी तरह सीट की ज़रूरत होती, तो क्या हम उन्हें सीट न देते. इस पर वह मुस्कराने लगी और हमें ढेर सारा आशीष दिया...  ख़ैर, बहादुरगढ़ में कंडक्टर ने हमें अपनी सीट दे दी और हम आराम से अपनी मंज़िल तक पहुंच गए...

इसी तरह पिछले दिनों हम अपने परिवार के साथ महरौली गए थे. बस में एक दंपत्ति चढ़ा. औरत के हाथ में कुछ सामान था, जबकि मर्द एक छोटे बच्चे को गोद में लिए हुए था और उसके हाथ में भी एक थैला था. औरत बीमार लग रही थी. हमारे भाई ने उस औरत को अपनी सीट दे दी. हमने उस शख़्स से कहा कि वह हमारी सीट पर बैठ जाए. पहले तो वह अजीब नज़रों से देखने लगा, जैसे किसी ने उसके साथ मज़ाक़ किया हो. सवारियां भी हमें अजीब नज़रों से देख रही थीं, क्योंकि हमने एक मर्द के लिए अपनी सीट छोड़ दी थी. लेकिन हमारे दोबारा कहने पर वह बैठ गया.
बाद में भाभी ने कहा कि हातिम ताई बनने की क्या ज़रूरत थी. हम भी तो थके हुए थे और सीट की हमें भी ज़रूरत थी. हमारी सहेलियां भी अकसर इसी तरह हमारा मज़ाक़ उड़ाती हैं.

दरअसल, मैट्रो या बस में सफ़र करते वक़्त लेडीज़ सीट पर अगर कोई बुज़ुर्ग शख़्स बैठा हो, तो हम कभी भी उसे नहीं उठाते... अगर वह ख़ुद भी सीट देने की कोशिश करे, तो हम मना कर देते हैं... हम अगर लेडीज़ या सामान्य सीट पर बैठे हैं, और ऐसा कोई शख़्स आ जाए, जिसे सीट की हमसे ज़्यादा ज़रूरत हो, तो हम अपनी सीट उसे दे देते हैं. वो चाहे औरत हो या फिर मर्द...

कभी तबीयत ठीक न हो और सीट भी न मिले, तो बहुत परेशानी होती है... सोचते हैं, काश !  कोई हातिम ताई मिल जाता... :)
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार
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शिजरा


लोग अकसर शिजरे की बात करते हैं... हमारा ताल्लुक़ फ़लां ख़ानदान से है, उसका फ़लां से है... हम आला ज़ात के हैं और फ़लां कमतर ज़ात का है...
हमारा एक ही जवाब है- हमारा ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम है, जो जन्नत में रहा करते थे...
हम ही क्या दुनिया के हर इंसान का ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम है... इसलिए ख़ुद को आला और दूसरे को कमतर समझना अच्छी बात नहीं है...

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