फ़िरदौस ! मैं आज भी तुम्हारी वो डांट भूला नहीं हूं


बात साल 2009 की है... लोकसभा चुनाव के लिए चुनावी मुहिम चल रही थी... उस वक़्त हमें एक
सियासी दल के प्रभावशाली शख़्स का फ़ोन आया... उन्होंने केंद्र में मंत्री रहे एक शख़्स का हवाला दिया और कहा कि उन्हें हमारी मदद चाहिए. काम मुश्किल नहीं था, उन्हें चुनाव के लिए तक़रीर चाहिए थी. बहरहाल, हमने उन्हें कई तक़रीरें दीं. उन्हें बहुत पसंद आईं. उन्होंने अपनी पार्टी ज्वॊइन करने का ऒफ़र दिया, एक बड़े पद के साथ... जो आज भी है...

बस एक बात बुरी थी. कभी भी फ़ोन आ जाता था. हमने कहा कि बराये-मेहरबानी देख लिया करें कि वक़्त क्या हुआ है. इतना ही नहीं, ये भी ख़्याल करें कि नमाज़ के वक़्त फ़ोन न किया करें. उस शख़्स ने माज़रत की और इस बात का ख़्याल भी रखा. एक बार सुबह साढ़े तीन बजे मोबाइल बज उठा. हम तहज्जुद की नमाज़ पढ़ रहे थे. और मोबाइल बार-बार बज रहा. हमने सलाम फेर कर मोबाइल बंद कर दिया. जब हम फ़ज्र की नमाज़ से फ़ारिग़ हो गए, तो हमने मोबाइल ऒन किया. कुछ ही लम्हे बीते थे कि फिर मोबाइल बज उठा. हमने कॊल रिसीव की और कहा-
आपने नमाज़ पढ़नी दुश्वार कर दी. हद होती है किसी को परेशान करने की भी. जब आपको मालूम है कि इस वक़्त हम इबादत कर रहे होते हैं, तो फिर क्यों फ़ोन किया. फ़ज्र तक का इंतज़ार नहीं कर सकते थे. हमने ग़ुस्से में और भी न जाने क्या-क्या कह दिया. अब तो याद भी नहीं...

ये बात भी इसलिए याद आ गई, क्योंकि कल सुबह उसी शख़्स का फ़ोन आया और कहने लगे-
फ़िरदौस ! मैं आज भी तुम्हारी वो डांट भूला नहीं हूं, लेकिन मुझे अच्छा लगा कि तुमने अपनी इबादत के सामने मेरी कोई परवाह नहीं की. हालांकि किसी आला अफ़सर की भी इतनी मजाल नहीं, जो मेरे सामने बोल जाए...
बात तो सही है, वो शख़्स है ही इतना प्रभावशाली. छह गनर तो हर वक़्त अपने साथ रखता है. आज हुकूमत में हैं.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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